महाभारत का काव्यार्थ | Mahabharata Ka Kavyartha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अूमिका / १६ के द्वारा इसके प्रचलित होने के कारण । किन्तु यह भी सही है कि वाचिक परम्परा के ही कारण इसमें अन्विति भी सुरक्षित रही हैं । इससे एक सुनता बिरने नहीं पायी है क्योकि समग्र प्रथ का पाठ या वाचन होता था और वाचक के ऊपर श्रोताओं नी स्मृति का नियन्त्रण लया रहता था । आचार्य बलदेव उपाध्याय ने महामारत का वैशिप्ट्य निरूपित करते हुए कहा है कि “व्यास जी का अभिप्राय केवल युद्धो का वर्णन ही नही है अपितु इस भौतिक जीवन सती 'निस्सारता दिखला कर प्राणियों को मोक्ष के लिए उत्सुक वनाना है। इसीलिए महाभारत का मुस्य रस शान्त है, वीर तो अगमूत है महाभारत के पानी झे एव विचित्र सजीवता भरी हुई है।. व्यास कर्मवादी -सलायें हैं। कर्म ही मनुष्य का सच्चा लक्षण है । कर्म से पराइमुलल व्यक्ति मानव की पदवी से सदा यन्रित रहता है ।” महाभारत फा यहू चाक्य-- गुदा बहा तदिद ब्वीमि नहिं मानुधात्‌ श्र ध्ठतर हि क्ड्निद्‌ (शान्ति पर्व श्लह। है रे) यह इगित ब रता है कि मानवता का उनायक तत्त्व पुरुपायें है, इसी को महा- रतवार मे प्राणिदाद बहा है । जपत्‌ मे जिन लोगो के पास हाथ है और हाथ से वर्ष करने का उत्साह है उनके सब अर्थ सिद्ध होते हैं-- अहो सिद्धायंता तेपा एणा सम्तीह पाणय । सती स्पृद्मं तेषा एपां सतोह पाणय ॥। (लान्ति पर्व श्०१ १) भारतीय शास्त्रीय दष्टि महाभारत के धर्म पर अधित विलोसित टुई है बौर र्मूतिया, प्रवन्प-प्रत्प महाभारत को प्रमाण भानते रहे हैं । साव्यशास्न के 'रचपितानो में बेल आनन्दवर्धेन का ध्यान महा मारत के वाब्य पक्ष पर गया पर उ होने भो सिवाय इसने दि सद्दाभारत दा मुख्य रस सात्त है जौ महा- भारत में प्रदन्धक प्यनियों के उदाहरण मिलते है, महाभारत के बाव्य-गठन की विदाद पोमासा प्रस्तुत नददी वी । महाभारत के वाचन वी थी परम्परा जातपत्ता के ऋचुर्माय के साद चण हो गयी । वागमट्ट ने ईसा वी सातवी झताब्दी मे महाभारत के बाचन की परम्परा का आदरपुवेव उल्लेख किया है परन्तु मध्य युग थे ऐसा लगता है वि श्रीमद्मागवत और रामकथा के पारायम सर पाठ की. परम्परा अधिव प्रयल रही । महाभारत और अय पुराणों के समग्र चाचन की परम्परा कुछ झीण हो गयी । कदाचित्‌ इसीलिए महाभारत्त वे झलग« अनग आस्पानों पर तो काव्य लिखे गये पर महाभारत का समय रूपान्तर




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