तत्त्वार्थ सूत्र | Tatvarth Sutra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.11 MB
कुल पष्ठ :
56
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अध्याय हे | परस्परोदी रितदुखाः ।। ४ ॥। नारकी जीव परस्पर में एक दूसरे को दुःख देते हैं। संक्लिष्टाप्सुरोदी रितदुः्खाश्च प्राक्चतुर्थया। ॥ ५ ॥ तोसरे नरक तक सक्तिष्ट परिणामवाछे असुरकुमार जाति के देव भी उन्हें दुःख देते हैं । तेष्वेकत्रिससदशसप्तद्शद्वावि शतित्र य सित्रिशत् सागरो पमा सरवानां परा स्थिति ॥ दे ॥ उन सातो नरको में क्रम से १ सागर ३ सागर ७ सागर १० सागर १७ सागर २२ सागर श्रौर ३३ सागर की आयु है । जम्बूई। पठबणोदादय शुमनामानों द्वीपसप्रुद्रा ॥ ७ ॥। मध्यलोक में जम्बूद़ीप भौर लवणसमुद्र झादि शुभनामवाढे असंख्यातद्वीप श्र समुद्र है । दविर्धिविष्कंभाः पूर्वपूवेपरिचषेपिणों बलयाकृतय ॥ ८ ॥। इन द्वीप और समुद्रा का विस्तार उत्तरोत्तर दूना है और ये सब अपने से पहले के द्वीप समुद्री को घेरे हुए चूड़ी के आकार गोल हैं । तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहख्र विष्कंभों जम्बूद्वी पः ॥९॥। इन द्वीप समुद्रो के ठीक बीच मे एक छाख योजन का गोल जम्बू- द्वीप है और उसके बीच में सुमेरु पवत है । भरत-हे मवत-दरि-विदेह-रम्पक-दैरण्यवतैरावतवर्षा श्ेत्राणि ॥१०॥। इस जम्बूद्दीप में भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक् दैरण्यवत और ऐरावत ये सात केत्र हैं । तद्विभाजिन पूर्वापरायता हिमवन्-महादिमवन्-निषघ-नीठ-रुक्मि- शिखरिणों च्षेघरपवता ॥ ११ 1
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