जैनाचार्य रविषेण - कृत पद्मपुराण | Jainacharya Ravishen - krit Padmapuran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चौवह उदाहरणा्थ मूल शोभ-प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत आने वानी लुलसी- सम्बद्ध सामग्री तथा अगले अध्यायों में समागत' तुलसी के रामचरितमानस से सम्बद्ध सामग्री । इस सामग्री को शोष-प्रक्रिया के 'पुनराख्यान' अंग के अन्तगंत रखना आयदयक था किस्तु अब केवल तुलनापरक अदा को पुनर्व्य॑वस्थित करके “स्व पुराण झौर रामचरितमातस' नामक एक ही अध्याय में समाविष्ट कर दिया गया है । तुलसी के विषय में तो कितने ही विद्वान्‌ लेखनी चला चुके हैं, किन्तु रविदेश पर इस शोधप्रबन्ध से पहले नही के बराबर ही लिखा गया था; अतः रविधेण सम्बन्धी सामग्री को पाठकों के सम्मुत लाने की लालसा अधिक बलवती रही अपेक्षाकृत अपनी सब्चयवति को प्रदर्शित करने के । अत: अब प्रथम अध्याय में पौराणिक काव्य का सामान्य विवेचन तथा संस्कृत पौराणिक काव्यों की परम्परा एवं सामान्य विद्येपताएँ, ट्वितीय अध्याय में आचार्य रविषेण का जीवन- ररिचय एवं कृतित्त्व, तृतीय अध्याय में रविषेण के समय की परिस्थितियों का परिचय, चतुर्थ अध्याय में 'पसपुराण' की विषयवस्तु को परिचय, प०्चचम अध्याय में 'पसपुराण' के पात्रों के चरित्र-चित्रण का विवेचन, षष्ठ अध्याय में 'पद्मपुराण' के भावपक्ष पर विचार, सप्तम अध्याय में “पद्यपुराण' के कला- पक्ष पर विचार, अष्टम अध्याय में 'पद्मपुराण' में जैन धर्म-दर्शन पर विचार, नवम अध्याय में पस्मपुराण में संस्कृति पर विचार, दशम अध्याय में जैन-रामकाव्य- परम्परा में 'पद्मपुराण' का स्थान-निर्वारण एवं एकादश अध्याय में 'पद्मपुराण और रामचरितमानस' का विविध दृष्टियों से तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। एकादश अध्याय में प्रसक्तानुप्रसवत्या तुलसी से पूवं रामकाव्य-परम्परा का सर्वेक्षणात्मक परिचय, तुलसी के रामचरितमानस का प्रकृतोपयोगी परिचय, पद्मपुराण और मानस की परिस्थिति, विषयवस्तु, पात्रों के चरित्र-चित्रण, भावपक्ष, कलापक्ष, धर्म एवं मस्कृति की दृष्टि से तुलना एव “रामचरितमानस' पर 'पद्मपुराण' के प्रभाव की चर्चा की गयी है । परिशिष्ट (१) में पद्मपुराण की सुक्तियों की सूची दी गयी है जो रविषेण के सुभाषितों पर कार्ये करने की इच्छा वाले व्यक्तियों के विशेष प्रयोजन की है । परिशिष्ट (२) में पदापुराण की प्रमुख वंदावलियाँ दी गयी हैं जो जैन-रामकाध्य- परम्परा के अन्य ग्रन्थों मे समागत वद्ावलियों के साथ रविषेण के ग्रन्थ की वंचा- बलियों की तुलन। में सहायक हो सकती हैं । परिदिष्ट (३) में संकेतिक ग्रस्थ-सुची दी गयी है। विचार तो परिदिष्ट (४) में शोध-प्रबन्धान्तगंत समागत व्यक्ति- बाचक संज्ञा्ब्दानुक्रमणी देने का भी था किन्तु ग्रन्थ की कलेवरवृद्धि के भय से ऐसा नहीं किया जा सका !




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