सत्यामृत | Satyamrit

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Satyamrit by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सत्य-दृष्टि [ दे हुआ १ क्या तुम उनसे बढ़कर हो-?. उन्हीं की जूठन खाकर तुम पे हो अत्र उनसे: बड़ा बनना चाहते हा, उनकी भुलें निकालते हो : यह प्राचीनतामोही था. अवसपणत्रादी यह नहीं सोचता कि हमारे पुरखों के पास जितनी पैँजी थी वह तो हमें मिली ही है. साथ ही इतने समय में जगत ने जो और ज्ञान कमाया हैं त्रह भी पँजी के रूप में हमें मिठा है ऐसी हाठत में अगर हम व्यक्तित्व की दृष्टि से न सही पर ज्ञान- भंडार की इष्टि स वद़ गये हों तो इसमें आश्चर्य क्या है : बल्कि यह स्त्राभाविक या आवश्यक है । दूसरी बात यह भी सोचने की है कि प्रथपुरुष हमारी अपेक्षा कितने ही अधिक ज्ञानी क्यों न हो पर दा काल के अनुसार परिवतन या सुशार करन स उनकी अवहलना नहीं होती । अगर आज त्र होते ता वे. भी. व्तमान देगकाल के अनुसार सुधा! करत । तीसरी बात यह है कि देशकाल के अनु सार सुधार करनेवाला जनसब्रक भर ही पुन ढागा क टुकड़े पाकर पत्झा हो--मनुष्य बना हो पर जिस प्रकार छोटे से बीज और आसपास के कूड कचरे का पाकर एक महान व्रेक्ष बन जाता है. जिसके फूल सुगधित होते हैं, फल रसीलि होते हैं इम प्रकार उसका मूल्य बाज से और कड़े कचंर से कई गुणा हो जाता है उसी प्रकार पुन ठुकड़ां को पाकर भी एक सुनारक जन- सबक महात्मा बन सकता है । जब हम बालक थे तब माँ वाप ने उस परिस्थिति के अनुसार छोटा कोट. बनत्रा दिया था, गरमी के दिनों में पतला कुत्ता वनत्रा दिया था अब उनके मरने के बाद जीवन भर हम छोटा कोट डी पहिनें या झीति ऋतु आ जाने पर भी पतला कुर्ता ही. पहिनें, अगर कोई हमें सलाह दे [कि समयानुसार पोशाक बदल लेना चाहिये ओर हम कहें कि हमार बाप क्या मूख थे जिनने यह पोडाक बनवादी तो यह हमारा पागलपन होगा इसी तरह का पागलपन प्राची- नता-मोही में पाया जाता है । घर्मसंस्थाओं में भी प्रारम्भ से ही असत्य का जो काफी मिश्रण हा जाता है उसका कारण जनसाधारण में फैल हुआ प्रचंड प्राचीनता- मोह है । जब जनता प्राचीनता की छाप के बिना किसी सत्यका ग्रहण करने का तैयार नहीं होती तब धर्म-संस्थाओं के संचालकों को उस नत्रीन या मामयिक सत्यपर प्राचीनता की छाप लगाना पड़ती है । इसलिये प्रत्येक 'र्म-संस्था के संचालक किसी न किसी रूप में अपनी घरमे- संस्था का इतिहास सृष्टि के कन्पित प्रारम्भ से युमूर करते हैं इस प्रकार धार्मिक-सव्य देने के सिय उन्हे मिर पर णतिहासिक असत्य का बोझ लादना पड़ता है । और काल्दन्तर में यह अमन्य घार्मिक सत्य को भी दवा वैठता है. पर इसका उ्तादाधित्व घर्म-संस्था के संचाठकों पर नहीं डाला जा सकता या बहुत कम डाल जा सकता है, बास्तबिक दोप ता. प्राचीनता-माही जन- समाज का है । प्राचीनता-मंहियां का दूसरा चिह्न है प्रत्यक्ष सत्य पर उपक्षा या उसका श्रयापहरण । कुछ सत्य- जिन्हे प्राय: वज्ञानिक-सन्य कहा जाता है-एस स्पष्ट होत हैं कि उन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सबाता | उनके घिपय में प्रार्चानतामाही उपक्ा करता है ओर जहां उपक्षा करना असंगत होता है वहां उस नवीन की प्राचन साधित करन की चढ्ा करके नवीन का श्राप का अपहरण करता है |




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