चित्रांगदा | Chitrangada

Chitrangada by पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvediहरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya

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पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvedi

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हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya

हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनड् आश्रम । तरह याद नहीं है कि मैंने क्या कहा और क्या उत्तर सुना । अधिक न पूछिए भगवन में ख्री हूँ तथापि पुरु- घोके समान ऐसी प्राणवाठी हूँ कि ठज्जा वज्रूप होकर मेरे शिरपर ठठ पड़ी तो भी वह मरे टुकड़े टुकडे न कर सकी । मुझे स्मरण नहीं आता कि दुःस्वप्रसे हुई सी में केसे घर ठोट आइ | तपाये हुए झूलके समान उनकी अखीरी बात मेरे कानॉर्म चुभने ठगी कि वराड्ने मैंने अह्मचर्यका वत धारण कर रकक्‍खा है । मैं पति- होनेके योग्य नहीं हूँ। पुरुषका त्रह्मचर्य कया घिककार है मुझे यदि में उसे नष्ट न कर -सकूँ । मकरप्वज आप जानते हो कि कितने-कितने ऋषि मुनियोंने अपनी चिरकालकी तपस्यासे कमाये हुए फठकों नारीके चरणतछमें _ विसर्जित किया है । क्षत्रियका ब्रह्मचर्य -- घर पहुँच कर मैंने धनुषबाण तोड़ फेंका । यह पिणछसे कठोर हुआ करतल जो इतने समय तक मेरे अभिमानका कारण था मुझसे तिरस्कृत हुआ । इतने दिनोंके बाद मेरी समझमें आया कि यदि ख्री हो कर भी में पुरुषके चित्तको न जीत सकी तो सारी विद्या बृथा है । अबलाओंके सुणाठ-कोमठ दो बाहु इन बाहुओंसे सोगुने बछवाढ़े हैं । धन्य हैं वे परावलम्बिनी मूखे तन्वड्रियाँ--साधारण नारियाँ--जिनके अपाड्पातसे वीयबल ओर तपस्याके फल पराभव पाते हैं ?--हे अनड्रदेव आपने पछभरमें मेरा सारा गवे चुर कर डाठा मेरी सारी विद्या और बठ अपने पेरॉमें झुका लिया । अब मुझे अपनी विया सिखलाइए मुझे अबढाका बल दीजिए निरख्रोंके अख्र-शख्रसे सज्जित कीजिए । मदन--मैं तेरी सहायता करूँगा । अयि झशुभे विश्वजयी अर्जुनको जीत कर मैं तेरे सामने केद कर लाऊँगा । महासम्राज्ञी होकर अपनी




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