डायरी के कुछ पन्ने | Dayari Ke Kuchh Panne

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Dayari Ke Kuchh Panne by घनश्यामदास बिड़ला - Ghanshyamdas Bidla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है । वे किनारे उत्तरे, सगर 'ाखें सचकी गांधीजी की ही छोर लगी थीं । वल्लभभाई के चेहरे पर विपाद था । जवाहरलालजी के चेहरे पर मुस्करादट । पंडितजी भी पहुँचे थी न थे। सब लोग पूछते श्र “ 'सालचीयजी अभी नहीं आये ?” ाखिर ऐस मोके पर पहेचे । जहाज ने लगर उठाया शोर धीरे-धीरे सरका; तव कहीं पता लगा कि हम लोग जानेवाले हैं। रामेन्धर, न्रलमोह्न रूमाल दिला-हिलाकर संकेत कर रहे थे । पर से तो विचित्र दशा में गोते खा रहा था। एक छोटे से दुवल्ले-पतले आदमी ने लोगों को कैसा मोहित कर लिया हे; इसी पर विचार कर रहा था । किन्तु जद्दाज चलने लगा तो याद पड़ा कि जा रहा हूँ । उ्यों-ज्यों जददाज़ छोर किनारे के वीच का ध्न्त- राय बढ़ता गया; त्यॉ-त्यों सन तेज़ी के साथ किनारे की छोर दौड़ लगाने लगा । शायद किनारे के लोगों की भी यही हालत थी । 'ाखिर आओखों ने काम देना बन्द कर दिया और लोगों को पहचानना भी मुश्किल हो गया । तब कानों से जयनाद सुनते रहे । अन्त में तो समुद्र का खुं-खं रह गया । दिन्दुस्तान का तो अब तामोनिशान भी नहीं । चारों तरफ पानी-ही-पानी है शरीर उनके वीच हमारी छोटी-सी दुनिया--“राज- पाँच




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