वर्णी - वाणी भाग - 4 | Varni - Vani Bhag - 4

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १९. ) चाहते हो तो पवित्र जेनघ्मुको न भूलना” सदाके लिए साथ रह रया। परिजन दुःख थे, श्मात्मा विकल थी, परन्तु गह्द भारका श्न सामने था; अतः ( सं० १६ ४५ ) सदनपुर, कारीटोरन और जठारा आदि स्कूलों मे सास्टरी की । पढ़ना और पढ़ाना इनके जीवनका लक्ष्य हो चुका था, द्रगाध ज्ञानसागरकी थाह लेना चाहते थे, शत: मास्टरीको छोड़ पुन; प्रच्छन्न विद्यार्थीके वेषमे; यत्र-तत्र-सर्वत्र साधनोवी साधना मे, ज्ञान जल कणोकी खोज मे, नीर पिपासु चातककी तरह चल पढ़े । सं० १९५० के दिन थे, सौभाग्य साथ था, अतः सिमरामे एक भद्र महिला विदुषीरत्न श्री सि० [चिरोजांबाई जी से मेंठ हो गयी । देखते दी उनके स्तनसे दुग्धघारा चह तिकली, मवान्तर का माद-प्रेम उमड़ पड़ा । बाईजीने स्पष्ट शब्दोमे कहा--'मेया ! चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं। ठुम हमारे घममेपुत्र हुए ।” पुलकित बदन, हृदय नाच उठा; बचपनमसे माँ की गोदीका भूला हुव्मा स्वर्गीय सुख 'अनायास प्राप्त हो गया । एक दुस्द्रिका चिन्तार्माण रन निसपायकों उपाय ब्पझौर झसहायकों सहारा _ सिल् गया । सदनशीलताके प्राण में-- बाईजी स्वयं शिक्षित थी; मादृघम और कतेव्य-पालन उन्हें याद था, 'मतः प्रेरणा की __-प्सेया । जयपुर जाकर पढ़ो ।” माद- ब्याज्ञा शिरोधायें की । (१) जयपुरके लिये भरस्थान किया, परन्तु जब जयपुर जाते समय लश्करकी घर्मशालामें सास सामान चोरी चला गया केवल पॉच द््राने शोष रद्द गये तब सा: ब्पानेमें छुतरी बेच कर एक-एक पेसेके चने चबाते हुए दिन काठते बदझासागर छाये । एक दिन




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