वर्णी - वाणी भाग - 4 | Varni - Vani Bhag - 4
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
524
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १९. )
चाहते हो तो पवित्र जेनघ्मुको न भूलना” सदाके लिए साथ रह
रया। परिजन दुःख थे, श्मात्मा विकल थी, परन्तु गह्द भारका
श्न सामने था; अतः ( सं० १६ ४५ ) सदनपुर, कारीटोरन और
जठारा आदि स्कूलों मे सास्टरी की ।
पढ़ना और पढ़ाना इनके जीवनका लक्ष्य हो चुका था,
द्रगाध ज्ञानसागरकी थाह लेना चाहते थे, शत: मास्टरीको छोड़
पुन; प्रच्छन्न विद्यार्थीके वेषमे; यत्र-तत्र-सर्वत्र साधनोवी
साधना मे, ज्ञान जल कणोकी खोज मे, नीर पिपासु चातककी तरह
चल पढ़े ।
सं० १९५० के दिन थे, सौभाग्य साथ था, अतः सिमरामे एक
भद्र महिला विदुषीरत्न श्री सि० [चिरोजांबाई जी से मेंठ हो
गयी । देखते दी उनके स्तनसे दुग्धघारा चह तिकली, मवान्तर
का माद-प्रेम उमड़ पड़ा । बाईजीने स्पष्ट शब्दोमे कहा--'मेया !
चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं। ठुम हमारे घममेपुत्र हुए ।”
पुलकित बदन, हृदय नाच उठा; बचपनमसे माँ की गोदीका भूला
हुव्मा स्वर्गीय सुख 'अनायास प्राप्त हो गया । एक दुस्द्रिका
चिन्तार्माण रन निसपायकों उपाय ब्पझौर झसहायकों सहारा
_ सिल् गया ।
सदनशीलताके प्राण में--
बाईजी स्वयं शिक्षित थी; मादृघम और कतेव्य-पालन उन्हें
याद था, 'मतः प्रेरणा की __-प्सेया । जयपुर जाकर पढ़ो ।” माद-
ब्याज्ञा शिरोधायें की ।
(१) जयपुरके लिये भरस्थान किया, परन्तु जब जयपुर जाते
समय लश्करकी घर्मशालामें सास सामान चोरी चला गया केवल
पॉच द््राने शोष रद्द गये तब सा: ब्पानेमें छुतरी बेच कर एक-एक
पेसेके चने चबाते हुए दिन काठते बदझासागर छाये । एक दिन
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