जैनधर्म - मीमांसा भाग - १ | Jaindharm Mimansa Bhag - 1

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Jaindharm Mimansa Bhag - 1  by दरबारीलाल - Darbarilalस्वामी सत्यभक्त - Swami Satyabhakt

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स्वामी सत्यभक्त - Swami Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्मका स्वरूप ७ यम न न रस सब सम्मसममयसससमरमपमरगरसरगर पर उन मित्रोकी हृत्या करना कया उचित था ! जत्र हम उनकी हिंसा किये बिना जीवित रह सकते थे, तब क्या हमें उनकी रक्षा न करना चाहिये थी ! क्या यह तामलिकता हमारे अधःपतनका कारण न थी? यही सोचकर महात्मा महावीर और महात्मा बुद्धने हिंसाके विरुद्ध क्रान्ति की । एक समय जो उचित था या क्षन्तव्य था, दूसरे समयमे वही अनुचित था, पाप था; इसछिये उसके दूर करनेके छिए जो क्रान्ति हुई वह धर्म कहलाई । हिंसा-अहिंसाके प्रश्नके साथ ,गो-वघके प्रश्नको ले छीजिये । निःसन्देह किसी भी निरपराध प्राणीकी हृत्या करना बड़ा भारी पाप है और हिन्दुस्थानमे गोबध करना तो बड़ेसे बड़ा पाप है। परन्तु मुसठमान धर्म जव और जहाँ पैदा हुआ वहाँकी दृष्टिस हमे विचार करना चाहिए । महात्मा मुहम्मदके ज़मानेमें अरबकी बड़ी दुर्दशा थी । मूर्तियोके नामपर वहाँ मनुष्य-वध तक होता था। इसको दूर करनेके ठिए उनने मूर्तियोको हटा दिया । “ न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी ”-न मूर्तियों होंगी, न उनके नामपर बढ़ि होगा ।' परन्तु इतनी विशाछ क्रान्ति, छोग सदद नहीं सकते थे । पात्रताके अनुसार ही सुधार होता है । इसछिए मनुष्य-वलि बन्द हुई और गो-बघ आया । हिन्दुस्तानमे गो-वंदा कृपिका एक मात्र सहायक होनेसे यहाँ उसका मूल्य आधिक है । इसीछिए गो-माता सरीखे दाब्दकी उत्पत्ति यहाँ हुई है। परन्तु अख़में कृपिके छिए गो-बंदाकी आवश्य- कता नहीं है--वहाँ ऊँटोंसे खेती दोती है । यदि बढि आदिकों रोकनेके छिए मुहम्मद साहबने मूत्तियाँ हटा दीं, मनुष्य-वध रोकनेके छिए गो-वधका विधान किया, तो ' सर्वनाश उपस्थित होनेपर आधिका




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