सुदर्शन - सुधा | Sudarshan Sudha

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Sudarshan Sudha by सुदर्शन - Sudarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कचि १७ अनिना पथ भय आप अनाथ आाजआाथ जप ना कक हा आय आय नल न निज के हृदय पर कटारें चल गदद । सोचने लगे, केसा सुन्दर तारा था, परन्तु उदय होने से पहले ही. अस्त हो गया । इससे क्या क्या. आशाए थीं, सब घूल में मिल गईं #$ सुना था, पवित्र और पुण्यात्सा जीव इस पापमय जगत्‌ में अधिक समय तक नहीं ठहरते । दस समय इसका समन हो गया । अमरनाथ बाहर निकले, तो मुँह पर सफ़दी छा रही थी । सुशील सामने आई, वह निराशा की मूर्ति थी । उसकी आँखे दस प्रकार खुली थीं मानों आत्मा की सारी दाक्तियाँ आँखों में एक्ट्टी होकर किसी बात की प्रतीद्ा कर रहीं हों । उसने अमरनाथ को देखा, तो भधीर होकर बोली, “बोलो क्या हुआ ?”” अमरनाथ की आँखों में आँसू श्रा गये । सुशीला को उत्तर मिल गया । उसने अपने दोनों हाथ सिर पर मारे, और पछाड़ खाकर प्रथ्वी पर गिर गई । भमरनाथ भोर भी घबरा गये । सुश्ीला को सुध श्राई, तो उसने आकाश सिर पर उठा लिया । उसका करुण-विलाप अमरनाथ के घावों पर नमक का काम कर गया । उनको साहस न हुआ कि उसकी ओर देख सके । उसका रुदन हृदय को चीर देनेवाला था, जिसको सुनकर उनकी आत्मा थरां उठी । उन्होंने जेब से सौ रुपये के नोट निकाले श्रौीर उसके हाथ में देकर ऐसे भागे, जैसे कोई बंदूक लेकर उनके पीछे आ रहा हो । यह दृश्य उनके कोमल हृदय के लिए असद्य था । घर जाकर सारी रात रोते रहे। उनको इस बात का निदचय हो गया कि कवि की स्त्री इस खत्यु का हेतु मुझे समभक रही हे । अतएव उसके सामने जाते दुए डरते थे । सहानुभूति का सच्चा भाव झूठे वहम को दूर न कर सका । कई दिन बीत गये । अमरनाथ के हृदय से कवि की असमय श्रौर दुःखमय सत्यु का शोक मिटता गया - घायल हृदयों के लिए समय बहुत गणकारों मर- हम हे । प्रातःकाछ था । प्रेस-कमंचारी “दपंण” का अन्तिम प्रूफ़ लेकर आया । उसमें कवि को कविता थी, अमरनाथ के घाव हरे हो गये । कवि प्राय: कहा करता था कि कवि की सन्तान उसकी कविता है, अमरनाश वो यह कथन याद आ गया । कवि की कविता देखकर उनको वही दुःख हुआ जा किसी प्यारे मित्र के अनाथ बच्चे को देखकर हो सकता है । उन्होंने ठण्डी “साँस भर कर प्रफ़




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