आकाश - दीप | Akash Deep

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Akash Deep by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आकाशन्दीप वह कहने लगा--“चम्पा ! हम लोग जन्मभूमि-भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में . इन्द्र और 'शची के . समान 'पूजित हैं। पर न-जाने कौन' अभिक्षाप हम लोगों: को” अभी शतक अलगं किये है ।. स्मरण होता हैं वह दार्शनिकों का 'देश '! शवह॒ महिमा की - प्रतिमा मुझे वह स्मृति .नित्य आकर्षित करती ' है; परंतु में क्यों * नहीं जाता ? जानती हो, इतना “महत्त्व प्राप्त करने पर भी में कड्ञालू हूँ ! - मेरा. पत्थर-सा हृदय एक दिन *सहसा - तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकान्त-र्माथ. की तरह द्रवित्त हुआ. । « स्चम्पा :! में ईरवर को नहीं मानता, में पाप को नहीं मानता में दया को नहीं समझ सकता; में उस छोक . में. विश्वास नहीं करता ।* पर मुझे अपने हृदय .के एक दुर्वल अंश पर श्रद्धा. हो .चली है। तुम न जाने क़ैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हों गई हो 1: आलोक -की. एक “कोमल रेखा इस निविड़तम में मुस्कराने लगी .।' पशु-बल और धन: के.उपासक के सन म किसी शान्त और 'कान्त' कामना की - हँसी खिलखिलाने “लगी; 'पर में न हँस सका ! . पद . “पवलोगी चम्पा 1 पोतवाहिनी पर असंख्य. धनराशि लादकर राज-रानी-सी जन्मभूमि के अड्ु में ? आज हमारा परिणय हो, कल ही हमलोग-. भारत के लिये प्रस्थान करें । महानाविक बुद्धगुप्त की आज्ञा: सिन्धु की लहरें मानती- हैं। वे कि




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