चरित्र निर्माण | Charitra Nirman

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Charitra Nimraand by सत्यकाम विद्यालंकार - Satyakam Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चरित्र-निर्माण 13 यह संतुलन मनुष्य को स्वयं करना होता है । इसीलिए हम कहते हैं कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं स्वामी है । वह अपना चरित्र स्वयं बनाता है । चरित्र किसीकों उत्तराधिकार में तहीं सिलता। अपने माता-पिता से' हम कुछ व्यावहारिक बात सीख सकते हैं, किन्तु चरित्र हम अपना स्वयं बनाते हैं । कभी-कभी माता-पिता और पुत्र के चरित्र में समानता नज़र आती है; वह भी उत्तराधिकार में नहीं, बल्कि परिस्थितियों-वद्य पुत्र में आ जाती है । परिस्थितियों के प्रति हसारी मानसिक प्रतिक्रिया--कोई भी बालक अच्छे या बुरे चरित्र के साथ पैदा नहीं होता । हां, वह अच्छी-बुरी परिस्थितियों में अवद्य पैदा होता हैं, जो उसके चरित्र-निर्माण में भला- बुरा असर डालती हैं । कई बार तो एक ही घटना मनुष्य के जीवन को इतना प्रभावित कर देती है कि उसका चरित्र ही पलट जाता है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है । निराद्या का एक भोंका उसे सर्दैव के लिए निरादावादी बना देता हैं, या अचानक आशातीत सहानुभूति का एक काम उसे सदा के लिए तरुण और परोपकारी बना देता है । वहीं हमारी प्रकृति बन जाती है। इसलिए यहीं कहना ठीक होगा कि परिस्थितियां हमारे चरित्र को नहीं बनातीं, बल्कि उनके प्रति जो हमारी मानसिक प्रतिक्रियाएं होती हैं, उन्हींसे हमारा चरित्र बनता है । प्रत्येक मनुष्य के मन में एक ही घटना के प्रति जुदा-जुदा प्रतिक्रिया होती है । एक ही साथ रहनेवाले बहुत-से युवक एक-सी परिस्थितियों में से गुजरते है; किन्तु उन परिस्थितियों को प्रत्येक युवक भिन्न इष्टि से देखता है; उनके मन में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं होती हैं । यहो प्रतिक्रियाएं हमें अपने जीवन का दृष्टिकोण बनाने में सहायक होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं का प्रकट रूप वह है जो उस परिस्थिति के प्रति हम कार्य-रूप में लाते हैं । एक भिखारी को देखकर एक के मन में दया जागृत हुई, दुसरे के मन में घुणा । दयाद्र व्यक्ति उरो पेसा दे देगा, दूपरा उस ढुत्कार देगा, या स्वयं वहां से दूर हुट जाएगा । किन्तु हीं तक इस प्रतिक्रिया का प्रभाव नहीं होगा । यह तो उसे




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