अध्यात्मप्रसाद | Adhyatmaprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) ब्याख्याता ने महाराज जी को लक्ष्य कर झनेक कुवाच्य कहे । वहाँ कुछ पूर्वी सेनिक थी उपस्थित थे, वे सहन न कर सके | व्याख्याता की ताड़ना करने पर उतारू हो गए । महाराज मे उस समय उन्हें शान्त करने को यह उपदेश दिया-- “'उपमानकर्त्त का अपमान करने से उसका सुधार नहीं होता, किन्तु सम्मान देने से वह सुधर जाता है । जसे श्राग में झाग डालने से वह दान्त नहीं होती, ऐसे ही द्रंपी की ट्रप-बुद्धि उसके खाथ ट्लेप करने से टूर नहीं हो सकती । श्रम्नि को इान्त करने का साधन जल है, इसी प्रकार ट्रेघ को मिटाने का साधन दान्ति-घारण करना है ।”' ( द० प्र० ) भोजन जिस प्रकार झरोग्य विद्या श्लौर बल प्राप्त हो, उसी प्रकार भोजन छादन श्रौर व्यवहार करे-करावें । श्रर्धात्‌ जितनी छ्ुधा हो, उससे कुछ न्यून भोजन कर | मद्यमाँसादि के सेवन से झत्तग रहें। ( स०् प्र० ) भोजन-दुद्धि (११) फरुखाबाद में 'साथधू' नामक एक शछूत जन-समुदाय रहता है, वे सब घरबारी होते हैं, काम-घन्घा करके निर्वाह करते हैं । उनके हाथ का बना भोजन ब्राह्मण-वेश्य आदि ग्रहण नहीं करते । पक दिन एक साधू कढ़ी झौर दाल परोस कर श्रद्0ासह्ित महाराज के पास ले झाया । मद्दाराज जी मै श्रद्धा- रूपी उस भक्ति का श्रादर किया । इस पर उपस्थित ब्राह्मणों ने कहा--'स्वामी जी ! श्राप तो 'साधू' का भोजन पाकर भ्रष्ट हो गण । श्रापको पसा करना कदापि उचित न था ।'




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