श्री गिरधर लीलामृत भाग - 3 | Shri Giradhar Leelamrit Bhag - 3

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Shri Giradhar Leelamrit Bhag - 3 by चन्द्रशेखर श्रोत्रिय - Chandrashekhar shrotriy

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बाँसा की पहाषियों में : ७ छोटे खेत थे जिनमें मक्का और चावल की फसनें थीं 1 सौन्दर्य आतप्रात वहाँ का जान्त वातावरण वरवस ही सहाँ आनेतर लोगों के चित्त को आकर्षित कियें विना नहीं रहता । उस क्षेत्र के निवासी सरल हृदय, भोले-भाल, अनपढ़ और गरीव हूँ। साहस और परिश्रम में उनकी तुलना नहीं । वहाँ की पहाड़ियाँ शेर, वघंरे, चीते, भालू जैसे हिसक जन्तुओं से भरी पड़ी हैं । उन्हीं पहाडियों में वे निर्भय होकर अपने पणओं को चराते हूं, घास के गटर और लकड़ी की मोलियां लाते हे तथा अन्य आवश्यक कार्य करते है । वे बड़े भले हैं । ऐसे भोनेभाले लोगों के बीच रह कर सवा करना बहुत भला कार्य है। दाता ने अपने निश्चय को स्थायित्व का रूप दे दिया ।' दाता निवास का निर्माण प्रयास कर वह भूमि वैश्य से चार हजार रुपयों में खरीद ली गई । पास की कुछ भूमि और खरीद ली गई। कुछ दर पहाड़ियों कें मध्य सोलह वीघा जमीन और मिल गई जो बन्थे के नाम से जानी जाती है और जिसमें भव अनेक फलदार पेंड़ लगा दिये गये हैं । गायों के लिए पहाड़ियों के मध्य वीस बीघा 'गोचर भूमि की व्यवस्था हो गई | सड़क के किनारें की कुछ पड़त भूमि सरकार से ले ली गई । इस तरह प्रभु कृपा से कृषि एवं चारागीह के रूप में भूमि की अच्छी व्यवस्था हो गई । भूमि की तो व्यवस्था हो गई किन्तु आवास की समस्या जटिल थी । कारण, पास में जो पैसा था वह तो कृषि योग्य भूमि के क्रय करने में खर्चे हो गया। नात्दंगा स्थित भूमि और मकान को विक्रम करने का विचार हुआ, किन्तु वह भी संभव नहीं हो सका । मकान तो बनाना ही थ्रा । निराश होने की -वात नहीं थी किन्तु समस्या सामने थी । पास में पसा नहीं, चूना, रेत अत्यधिक महंगा .। चना तीस क्रिलो मीटर टूर से व रेतत.बीस कि. मी. टूर से लाना होता है । कारीगर भी दूर से अर्थात्‌ उदयपुर, 'दवगढ़, नाथद्वारा, भीम जादि स्थानों से लाने होते हैं । मकान वनाने को तो वात-वात में पैसा चाहिये और पास में फूटी कोड़ी नहीं । केवल मात्र संवल




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