विश्वामित्र और दो भाव - नाट्य | Vishvamitra Aur Do Bhav Natya

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Vishvamitra Aur Do Bhav Natya by उदयशंकर भट्ट - Udayshankar Bhatt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्रिप 'चिधोग से सभी 'श्रहू सल घुस गया! हृदय, प्रेस कादम्स पियो प्राकण्ठ तक तारों सुधा, पिपासादुल नर की सुखद शुभ्न प्रेम पी मदिर हुदय फी वेतना । श्रो मानव तुम कितने सुन्दर मधुर हो । कितने ऊेचे हृदयवान, जाना स था 1 पुष्प भी कहता है-- श्रो रमरपी, सनार तुम्हीं हो प्रारय का सें श्रज्ञानी सूंढ, सूल सा था गया । नारी श्रपने को श्रौर पुरुप को पहचान कर वह उठती है-- श्ररे नहों मानव मद को है प्यास ही घहू॒ नारी के सुखद स्वप्न के जगत में हेंस जाता श्रॉघो में श्राकर जब कभी हर ट ८ क्रोध, मान, झपमान, भत्सना, ताइड़ना कहाँ न जाने कहाँ भाग जाते सभी श्रौर हृदय पानी सा होफर सतत हो बहने लगता हैं वाह में प्रेस में । श्रो प्रिय, श्रो प्रिय बहू मेनका ऋषि से ग्ार्निगन घद्ध हो जाती है। विद्ुद्ध सारीत्व का पुस्पत्त्र से सघर्प समाप्त हो जाता है दोनों के संयोग में । इसके वाद का नारीत्व मातुस्वरुूम में जागृत होता है । पुरुप कि घ्रति नारी का सघपे मापृत्व मे जाकर समाप्त हो जाता है पर पुरुप से फिर पुराने सस्कार जागन होति हैं । मेनका स्वात्मजा बालिका को देस श्रावेग श्ौर उल्लास से कहती है




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