गीता - परिचय | Geeta-parichay

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Geeta-parichay by स्वामी रामसुखदास - Swami Ramsukhdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गीताके सम्वन्धर्म ऊुछ बातव्य चार्तें श्ट स्वीकार कर लिया, वे युधिष्टिर माता कुन्तीकी युद्ध करनेकी आज्ञा हो जानेपर युद्धसे कभी भी विंमुख कैसे हो सकते थे । यदि अजुन युद्धमीरु होता तत्र तो उसे युद्धमें प्रदत्त करनेके लिये मगवान्‌का कथन उचित होता; किंतु अजुन युद्धभीरु नहीं था बल्कि धमभीरु था । मानों वह इस वातसे भयभीत था कि मेरे द्वारा कहीं अधम न हो जाय, जिससे मेरी वास्तविक पारमार्यिक दानि हो जाय । इसलिये भगवानने युद्ध करानेके छिये ही अजुनको गीता सुनायी--ऐसा मानना उचित नहीं है । ज--कई लोग कहते हैं कि गीतामें केवल कमंयोगका ही वणन है । युद्धभीरु अजुनको युद्धरूप कमेमें छगानेके लिये ही गीता सुनायी गयी श्री। अतः गीता कर्मप्रधान है; ज्ञान और मक्तिकें वर्णन तो उसमें प्रसट्लोपात्त हैं । किंतु यह बात नहीं है । अज्ुन अपना चास्तविंक निंश्चित श्रेय ( कल्याण ) चाहता था । उसने खयं कहा है-- यच्छेयः . स्थान्निश्चितं. ब्रूहिं तनमे । हि (गीता २। ७ का तीसरा चरण ) तदेकं वद निश्यित्य येन श्रेयो5हमा प्छुयाम्‌ । (गीता २ | २ का उत्तराध ) यच्छेप पएतयोरेक तन्में बूदि खुनिश्चितम्‌ । ( गीता ५ | १ का उत्तराध ) इसके उत्तरमे भगवानने श्रेय ( कल्याण ) करनेवाले जो-जो साघन दो सकते हैं, उन सबको गोनामें कड। है । इसडिये गोता




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