ज्वारभाटा | Jwar Bhata

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Jwar Bhata by देवीदयाल चतुर्वेदी मस्त - Devidayal Chaturvedi Mast

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ | ज्वारभाठा देर तक खड़ी रही । उस दिन फिर वह त्रिवेणी नहीं जा सकी । यमुना में ही स्नान कर झपने घर वापस चली आ्राई । सन्ध्या समय उसने बहुत प्रतीक्षा की लता श्रौर लीलाधर की । लेकिन पता नहीं, वे लोग क्यों नहीं श्राए १ शायद उन्दे रेखा के व्यवहार से चोट पहुँची हो ! इस घटना को बीते श्राज एक महीना हो चुका; लेकिन रेखा है कि उस दिन के झ्रपने श्रभद्र व्यवहार पर मन-दी-मन एक खीभ से भर-भर उठती है । जिसकी मधुर कल्पना-मात्र से वह श्रात्मविभोर हो उठती है; जिसके मिलन-विरह का एक श्प्रकट-सा काल्पसिक रगीन' तफ़साना युग-युग से सँंजोए; बहती जा रही है जीवन-प्रवादद मे, उसे शपने घर मे भी उसने नहीं दाने दिया । इस श्रबवज्ञा की भी कोई सीमा है! रेखा यही सब सोच रही है श्रौर देख रही है' यमुना की नीली लहरों पर ड्ूबते सूय की पीली किरणों का प्रतिबिम्ब । ऊँचे-उँचे बृत्तों पर रेनबसेरा करनेवाले पच्ची क्षोरों से चहचहा रहे हैं; लेकिन रेखा है कि अपने ही विचारों में खोयी-सी, ठगी-सी श्रौर उलभी-सी खड़ी है सोन |




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