अप्सरा | Apsara

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Apsara by श्रीसूर्यकान्त त्रिपाठी निराला - Shree Soorykant Tripathi Nirala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अप्सरा एक अदली बैठता था । पीछे की सीट पर अकेली कनक । कनक प्राय झाभरण नहीं पहनती थी । कभी-कभी हाथों में सोने की चूड़ियाँ डालर लेती थी गले से एक हीरे की कनी का जड़ाऊ हार . कानों में हीरे के दो चंपे पढ़े रहते थे । संध्या-समय सात बजे के बाद से दस तक और दिन सें भी इसी तरह सात तक पढ़ती थी भोजन-पान में बिलकुल सादगी पर पुष्टिकारक भोजन उसे दिया जाता था । दे धीरे-धीरे ऋतुओं के सोने के पंख फड़का एक साल और उड़ गया । सन के खिलाते हुए प्रकाश के अनेक करने उसकी कमल-सी आँखों से होकर बह गए । पर अब उसके मुख से आश्चयं की जगह ज्ञान की मुद्रा चित्रित हो जाती वह स्वयं अब झपने भविष्य के पट पर तूलिका चला लेती है । साल-भर से माता के पास उसे चृत्य और संगीत की शिक्षा सिल रही है । इधर उसकी उन्नति के चपल क्रम को देख सर्वेश्वरी पहले की कल्पना की अपेक्षा शिन्ञा के पथ पर उसे और दूर तक ले चलने का विचार करने लगी और गंधर्ब॑-जाति के छूटे हुए पूर्व-गौरव को स्पद्धो से प्राप्त करने के लिये उसे उत्साह भी दिया करती । कनक अपलक ताकती हुई माता के वाक्यों को सप्रमाण सिद्ध करने की मन-ही-मन निश्चय करती प्रतिज्ञाएँ करती । साता ने उसे सिख- लाया-- किसी को प्यार मत करना । हमारे लिये प्यार करना छात्मा की कमजोरी. है यह हसारा धर्म नहीं । तक जनक चल कद कक पक




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