भगवतगीता और महात्मा गाँधी के समाज - दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन | Bhagawat Geeta Aur Mahatma Gandhi Ke Samaj - Darshan Ka Tulanatmak Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका निभायी है। गीता उस जिज्ञासा की भी समीचीन एवं युगानुरूप शब्दावली और संदर्भ प्रस्तुत करती है, जो तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों से लेकर आज की संघर्षमयी परिस्थितियों में मानव मस्तिष्क को उद्देलित करते हैं। समाज-दर्शन के दृष्टिकोण से गीता जहाँ (वैयक्तिक जीवन और सामाजिक आह्वान के मध्य) दुविधा का प्रतिनिधित्व करती है, वहीं उसका निदान भी करती है। मानव द्वन्द्व के प्रतीक अर्जुन के रूप में गीता सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न को हल करने का प्रयत्न करती है। यह है- 'धर्ससमुद्ध्यच्चते” को सुनिश्चित करने का प्रश्न-जिसका एकमात्र मार्ग निष्काम कर्ममार्ग की सतत साधना है। गीता प्राचीन काल से ही हर युग में विचारको की दृष्टि के केन्द्र मे रही। समय-समय पर गीतोपदेश के विवेचन और विश्लेषण से इसका सामाजिक और आध्यात्मिक पक्ष अधिक स्पष्ट हुआ है। जहाँ तक गीता के सामाजिक दर्शनात्मक पहलू की बात है, तो गीता के अधिकांश प्राचीन भाष्यकारों और व्याख्याकारों ने इसके आध्यात्मिक पक्ष अर्थात्‌ मनुष्य के व्यक्तिगत मोक्ष को सामने रखकर उसके साधनभूत ज्ञान, कर्म और भक्ति पर विचार किया। अत: इससे गीता का सामाजिक पहलू पृष्ठभूमि में ही रह गया। बाल गंगाधर तिलक की पुस्तक “गीता रहस्य” ने कर्मयोग पर आधारित इहलोकवादी दृष्टि से गीता पर विचार कर उसे एक नया आयाम दिंया। महात्मा गाँधी और उनके अनुयायियों ने गीता के समाजशास्त्रीय ज्ञान पर ज्यादा गहराई से विचार किया। गीता के आदर्श पुरुष की परिकल्पना हिंसा-अहिंसा की समस्या तथा स्वधर्म-स्वकर्म की महत्ता आदि ऐसे आयाम हैं, जिनमें उसका समाज-दर्शन प्रतिबिम्बित होता है। गीता पर समाजशास्त्रीय चर्चा सामान्यत: वर्ण-व्यवस्था से जुड़ी है। कृष्ण की उद्घोषणा से प्रतीत होता है कि गीता चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का समर्थन करती है।** अद्ठारहवें अध्याय में चारों वर्णों के लिये अलग-अलग कर्म निर्धारण का काम भी गीता करती है। द्रष्टव्य यह है कि गीता उस काल में स्वीकृत और प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का विवरण देती है। अद्ठारहवे अध्याय में वर्णित चातुर्वर्ण्य कर्म गणना का आधार यही है। इसी प्रकार चौथे अध्याय में भी वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति में गुण- कर्म की विशेष भूमिका मानी गई है। इन सबका अर्थ गीता की वर्ण-व्यवस्था का वर्तमान जाति-व्यवस्था का समर्थक या विरोधी होना नहीं है। गीता के समाजशास्त्रीय ज्ञान का व्यापक उद्देश्य कर्मवाद से फलासक्ति को निकाल कर कर्मवाद और कर्मसंन्यास के विभेद को मिटाना है। गीता ने यज्ञ और लोकसंग्रह की नई विवेचना कर जन साधारण के दैनिक कार्य को भी यज्ञमय बनाया। साथ ही, सम्पूर्ण सृष्टि को परमात्मा के विस्तार और प्रकटीकरण के रूप में देखकर भूतमात्र के बीच एकत्व-समत्व बोध के रूप में एक महान सत्य का उद्घोष किया। यही नहीं, बल्कि इस एकत्व बोध के कारण भूतमात्र की सेवा अपरिहार्य बना दी। नवें अध्याय में तो फल सहित कर्म को परमात्मा को अर्पित करने के क्रान्तिकारी और लोककल्याणकारी अवधारणा द्वारा मानव मुक्ति का द्वार ही खोल दिया। गीता के उत्तरारद्ध विशेषकर चौदहवें, सोलहवें और सतरहवें अध्याय उसके समाजशास्त्रीय ज्ञान के हृदय स्थल हैं, इनमें समाजशास्त्रीय लौकिक ज्ञान भरा पड़ा है। गीता त्रिगुण-विभेद और उनकी महिमा का विशद वर्णन, विवेचन करती है। चौदहवें अध्याय में यह स्थापना रखी गई है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति ही सभी कर्मों का आदि स्रोत है। त्रिगुणों की अलग-अलग महिमा है। सत्व से प्रकाश, रज से प्रवृत्ति और तम से मोह पैदा होता है। “इस तीन लोक में ऐसा कोई शणी नहीं है जो (७)




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