भगवदगीता और महात्मा गाँधी के समाज - दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन | Bhagvadgeeta Aur Mahatma Gandhi Ke Samaj Darshan Ka Tulnatmak Addhayayan

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Bhagvadgeeta Aur Mahatma Gandhi Ke Samaj Darshan Ka Tulnatmak Addhayayan by नीलम सिंह - Neelam Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका निभायी है। गीता उस जिज्ञासा की भी समीचीन एवं युगानुरूप शब्दावली और संदर्भ प्रस्तुत करती है, जो तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों से लेकर आज की संघर्षमयी परिस्थितियो मे मानव मस्तिष्क को उद्वेलित करते है। समाज-दर्शन के दृष्टिकोण से गीता जहो (वैयक्तिक जीवन ओर सामाजिक आहवान के मध्य) दुविधा का प्रतिनिधित्व करती है, वही उसका निदान भी करती है। मानव ভুল के प्रतीक अर्जुन के रूप मे गीता सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न को हल करने का प्रयत्न करती हे। यह है- धर्मसमुद्ध्यच्चते* को सुनिश्चित करने का प्रश्न-जिसका एकमात्र मार्ग निष्काम कर्ममार्ग की सतत साधना है। गीता प्राचीन काल से ही हर युग मे विचारको की दृष्टि के केन्द्र मे रही। समय-समय पर गीतोपदेश के विवेचन और विश्लेषण से इसका सामाजिक और आध्यात्मिक पक्ष अधिक स्पष्ट हुआ है। जहाँ तक गीता के सामाजिक दर्शनात्मक पहलू की बात है, तो गीता के अधिकांश प्राचीन भाष्यकारो और व्याख्याकारों ने इसके आध्यात्मिक पक्ष अर्थात्‌ मनुष्य के व्यक्तिगत मोक्ष को सामने रखकर उसके साधनभूत ज्ञान, कर्म और भक्ति पर विचार किया। अत: इससे गीता का सामाजिक पहलू पृष्ठभूमि मे ही रह गया। बाल गंगाधर तिलक की पुस्तक गीता रहस्य ने कर्मयोग पर आधारित इहलोकवादी दृष्टि से गीता पर विचार कर उसे एक नया आयाम दिया। महात्मा गॉधी और उनके अनुयायियो ने गीता के समाजशास्त्रीय ज्ञान पर ज्यादा गहराई से विचार किया। गीता के आदर्श पुरुष की परिकल्पना हिंसा-अहिंसा की समस्या तथा स्वधर्म-स्वकर्म की महत्ता आदि ऐसे आयाम हैं, जिनमे उसका समाज-दर्शन प्रतिबिम्बित होता है। गीता पर समाजशास्त्रीय चर्चा सामान्यत: वर्ण-व्यवस्था से जुड़ी है। कृष्ण की उद्घोषणा से प्रतीत होता है कि गीता चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का समर्थन करती है।'* अठठारहवे अध्याय मे चारों वर्णो के लिये अलग-अलग कर्म निर्धारण का काम भी गीता करती है द्रष्टव्य यह है कि गीता उस काल मे स्वीकृत ओर प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का विवरण देती है। अट्टारहवे अध्याय मे वर्णित चातुर्वण्यं कर्म गणना का आधार यही है। इसी प्रकार चौथे अध्याय मे भी वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति मे गुण- कर्म की विशेष भूमिका मानी गई है। इन सबका अर्थं गीता की वर्ण-व्यवस्था का वर्तमान जाति-व्यवस्था का समर्थक या विरोधी होना नही है। गीता के समाजशास्त्रीय ज्ञान का व्यापक उदेश्य कर्मवाद से फलासक्ति को निकाल कर कर्मवाद ओर कर्मसंन्यास के विभेद को मिटाना है। गीता ने यज्ञ ओर लोकसंग्रह की नई विवेचना कर्‌ जन साधारण के दैनिक कार्य को भी यज्ञमय बनाया। साथ ही, सम्पूर्ण सृष्टि को परमात्मा के विस्तार ओर प्रकरीकरण के रूप में देखकर भूतमात्र के बीच एकत्व-समत्व बोध के रूप मे एक महान सत्य का उद्घोष किया। यही नही, बल्कि इस एकत्व बोध के कारण भूतमात्र की सेवा अपरिहार्य बना दी। नवे अध्याय ने तो फल सहित कर्म को परमात्मा को अर्पित करने के क्रान्तिकारी ओर लोककल्याणकारी अवधारणा द्वारा मानव मुक्ति का द्वार ही खोल दिया गीता के उत्तरार्धं विशेषकर चौदहवे, सोलहवे ओर सतरहवे अध्याय उसके समाजशास्त्र ज्ञान के हदय स्थल है, इनमे समाजशास्त्रीय लौकिक ज्ञान भरा पड़ा है। गीता त्रिगुण-विभेद ओर उनकी महिमा का विशद वर्णन, विवेचन करती है। चौदहवे अध्याय मे यह स्थापना रखी गई है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति ही सभी कर्मो का आदि स्रोत हे। त्रिगुणो की अलग-अलग महिमा है। सत्व से प्रकाश, रज से प्रवृत्ति ओर तम से मोह पैदा होता है। “इस तीन लोक मे ऐसा कोई प्रणी नही हे जो (७)




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