भारत और भारतीय नाट्यकला | Bharat Aur Bhartiya Natak Kala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अरत-कापत्त रममच के सम्बप मे आउनिक हा नहीं प्राचीन विद्वानों मे मो सलसेल था जे रगभच के सम्वघ मे भरन एव कुछ अन्य आचाया बा मा यता रंजाचन मे अक्ति कार भा प्रस्तुत की गई है, जिससे घिषय का स्पाटीकरण हो सके । उसी प्रकार नाटूपसास्थ के सिंसिनत सस्करणों की बलोक संख्या आाईदि की भी अफसहित एक. लुखतात्मक सारणी प्रस्चुन ये गई 2 जिससे एक दृष्टि मे अब तक के प्राप्त सस्करणों से पाल रोक ते उसके सास हो सके । अन्तत' विफयवस्तु को उपस्थित व रन हुए यघास मं आधुनिक शोध की पड़नि का अनुसरण कर इसको जधिकाधिक उपयोगी बनाने का किया गया है भरत की देस मरत शाइवत भारत के सिर्माए « । नोदूय, काव्य, सर्गीव और नुस्य उसी सुकूसार बललाओं द्वारा जोवन की शास्वतता की उस च्पि ने कसी कल्पना की थी । स्वयं कसी लक्ष्मी स्वयवर, कभी महेन्द्र लौर कभी को नाटुसायित कर इसे धरदी पर सधुर रसवन्ती स्ोतश्विनी नाद्यघारा को गति जौर जक्ति दी थी । 'ताट्य' का प्रयोग करते हुए दानवों के रोमहूर्षक आक्रमण को झेला जौर ऋषि-मुनियों का उपलाससुलक अनुकरण' करते हुए उनके पुत्र डशिशाण भौर तलिरस्कोर के पी भाजव बने । ये सारी पौराशिक बे इस तथ्य का समेत करती हैं कि भारत शुमि थे भरतों ने करना के सौन्दर्य को शाक्बतता तो प्रदान की पर खड़ी कटोए' साधना और सतत तपस्या के बल पर । थट्टी कारण है कि इसने राजनैलिक उत्थाननपलत और सामाजिक उथल-्पुथन के बाद नादुयशास्त्र की कलात्मक परम्पराएँं काशमीर से कन्याकुणणरी तक किसी ने किसी रूप हे जीवित ही रही । चिदवरसु के नटसज मन्दिर के सॉवन पर अकित मुद्राएँ और भावन गिमाएँ नाट्यशार्त्र के पंचम अध्यप्य में निर्पित रुद्राओ के अनु- सार ही नहीं, कम भी उनका वहीं है। दूसरी ओर नादूयरश्पस्त्र के सुन सस्करणों लथा टीका की अधिकांश पाण्डुलिपियोँ उत्तर भारत में सुदूर काश्मीर की ललहटियों से पागी गयों है । बह एकमात ऐसा आकर ग्रंथ है जिसने उत्तर से दक्षिण तक नाट्य, नुस्य और समीन के आरचार्यों लोर क्रलाग्रथों के रचयिताओं की कलाप्रेरणा को सर्दियों तक प्रभावित किया है । भरतनाद्यम्‌ भर का वह मसनभावेन रूप नाट्यशास्त्र से ही परणा ग्रहण कर जनमानस को और मक्ति-मावना से अनुप्राणित कर रहा है । कुतज्नता के दो झब्द यहें शोध-प्रबन्ध पुरा हुआ, बहुत कठिचाइयों और परेशामियों के वाद । प्राय. सगलकायं विघ्नरहित नहीं होते । महाकाल के चरणों से मेरा शतश, प्रणाम कि यह अपना प्राथमिक कार्य पूरा कर प्रकाशन का सौभाग्य प्राप्त कर रहा है । आज जब कृतज्ञता के दो शब्दों से उन महानु- भावों की बदना करनः चाहता हूँ जिनके आशीर्वाद, सहयोग और सहायता से यह महानु माग- लिक अनुष्ठान पूरा हुआ तो दारुण दुःख और मर्मातक पीडा में जेसे डूब रहा हूँ | अमर कलाकार श्री रामवृक्ष बेनीपुरीजी ने इस नाट्यविद्या की ओर सुझे कभी वर्षो पूर्व प्रेरिति किया था । लगभग आएउ वर्षों तक दारुण पक्षाधात से संघर्ष करने हुए वे सात ली ६८ को स्वगलोकवासी हुए मे इसे प्रकाशित रूप में न देख सक्के उनके




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