मूल्य और मूल्यांकन | Moolya Aur Moolyankan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ मूत्य श्रोर मुत्यांफन पिचलित हो उच्ते हैं। इस प्रकार नाटक के करणोत्पादक प्रसंग में प्रेक्षक स्वयं श्रपने भवितव्य के चविपय में शंकाकुल रहता है । नायक के श्रघ-पतन के साथ प्रेक्षक की उद्िक्त एवं प्रश्ुव्य भावना कांत होती है शरीर इस भाववामनता से उसे श्रानन्द की उपलब्धि होती है । जमंन-कवि गेटे के श्रनुसार नाटकांतगंत करुण श्रीर भीति की भावनाएं प्रेक्षक की तत्सम्वन्धी श्रतिदायतता का दामन करती हैं श्रौर फलस्वरूप उसके भावोद्रेक में कमी हो जाती है । इस मत के श्रनुसार इस प्रक्रिया में भावना का युद्धिकरण सम्पन्न होता है । प्रक्षुव्थ भावना के क्ष्णों में करुण दृष्य के प्रेक्षण से दृष्टा की मन.प्रबुत्ति स्थिर श्रीर थांत होती है श्रौर उसके भीतर किचिंतू थांत रस का प्रादुर्भाव होता है । नाटक में करुणा श्रौर भय की भावनाश्ों का श्राविष्करण मन की स्थिरावस्था के निर्माण में सहायक होता है । परन्तु इस थुद्धिकरण का पया ब्र्य है । इस शुद्धिकरण का स्वरूप गौर प्रक्रिया क्या है । 'केथारसिस' शब्द का मूलायें वैद्यक-दयास्थ्र में विरेचन या विरेक है जिसे श्रंग्रेज़ी में 'परगेदन' कहा गया है। विरेचन चूर्ण के सेवन से धरीर के भ्रतिरिकत पदार्थ का रिप्कासन होता है, इसी प्रकार कंयारसिस में क्रुव्ध भावना या अतिरिक्त भावना के निप्कासन की कल्पना है । नाटक में भावना-परिप्कार के दारा यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है, ऐसा श्ररिस्टाट्ल का मत है ? ट्रेजिक नाटक की करुण घटना को भ्रवलोकन से प्रेक्षक के मनोविकार का श्रग्राह्म भाग नप्ट होता है शरीर फलस्वरूप उसका थुद्धिकरण एवं उन्नयन होता है श्री एफ० एल० ल्यूकस की स्पापना है कि भावना के उर्दक दारा श्रत्तिरेक भावना का निप्कासन हो जाता है श्रौर मन 'मर्यादा' को प्राप्त होता है, ऐसा दी श्ररिस्टाट्ल का श्रभिप्रेत है । “उत्तर रामचरितत' के तीसरे श्रंक में राम को दण्डक वन की पर्णकुटी में पहुंचा कर भवभूत्त उन्हें वासन्ती के सामने खुल कर रुदन करने का मौका देते हैं । श्रदृदय सीता को यह ्रसहा होता है, परन्तु राग का श्रसहनीय दु:ख इसी प्रकार हत्का हो सकता है तमसा सीता को समभ्ाती है कि इस समय श्रशुमोचन हो एकमाय उपाय है, नही तो राम का हुदय विदीर्ण हो जाएगा : क्तंव्यामि ललु दुःखितेदु:यनिर्वाणारानि । प्रोत्पीड़े सटाकस्य परीवाहुः प्रतिक्रिया । शोशक्षोने. च. ट्ुदयं प्रलायेरवर्धायते ॥ (३1२९ कै त्यूकस की स्थापना सवभूति की दस स्थापना से भिन्न के भाप्यकार प्रावलस ने भी इसी प्रकार की व्याख्या उपसि का दमन दावय नहीं है, उसे खुल ने नहीं है। श्ररिस्टाट्ल स्थत की है । जिस भावना न गगय न कर मां देने में ही शेम है । नाटक में भय श्रौर करणा के प्रसंगों के दर्दोन से प्रेक्षक के दमित मनोविक्रारों को क्षोम से मुक्ति प्राप्त होती है भीर वे सुसहय बनते हैं । प्रावनत के विवेचन का सार यहीं है कि भावनोद्रेक को मर्यादित करने का एक उत्कृप्ट सावन ट्रेलडी है । वास्तव में प्रावनस की यह स्पापना तत्कालीन शरीक जीवनदर्यन से दि ह उद्भूत है। जिस प्रकार भारत का रस-सिद्धान्त न्त भारतीय जीवनवृष्टि की उपज है जो




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