धर्म का आदि प्रवर्तक | Dharam Ka Aadi Parvartak
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
214
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अथान--हे वस्रसंहनन रुद्र, तू सम्पूण उत्पन्न हुये पदार्थों में
अधिकतर शोभायमान है । तथा सब से श्रेष्ठ है, सब बलवानों में
अधिक बलवान है ! इस लिये आप हमको (श्रंहस: पार) पापों से
पार उतारों, तथा क्लेशों के 'अऑआक्रमणों से युद्ध करता हुआ
विजयी बनू' ऐसी कृपा करो । मंत्र २ में स्पष्ट हैं कि (भेषजेभिः
व्यरूदू द्रषो) अथात् औषधियों से हमारा टेष दूर करो ! अतः
स्पष्ट होगया कि यहाँ औषधि से अभिप्राय 'आात्मिक चिकित्सा से
है, जिस के एकमात्र वेद उस समय श्री ऋषभदेव जी ही थे ।
तथा च, ऋ० मं० ३ सू० २६ में है--
पम्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृत॑ में चक्षुर्सृतं म आसन ।
'अकस्त्रिघातू रजसो विमानाजस्रों धर्म्मों हविरस्मिनाम ।॥ज।
न्रिभिः पतित्रेरपु्पाध्यक हृदामतिं ज्योतिरनुप्रभानन् ।
वर्षिष्ठं रत्तसकून स्वघामिरादि दावा प्रधिवीपयपश्यत ।1८1।
'्रधात--मैं अपि जन्म से ही (जात वेद) सवज्ञ हूं । (घृतं)
ज्ञान प्रकाश ही मेरा नेत्र है । मरे मुख में असृत है अथात् मेरा
उपदेश माक्षफल दाता है । तीने (सम्यग्दशन, ज्ञान, चारित्र) मेरे
प्राण हैं । मैं अन्तरिश्न आदि सम्पूर्ण लोकों का ज्ञाता तथा अक्षय
हूं ॥७॥।
्न्त: करण द्वारा मनोहर युद्ध तत्मज्योति को जान कर
तीन पबित्रूप साधनों से पूजनीय श्ात्मा को शुद्ध किया है |
'प्रम्मि ने श्रपने ही स्वरूप से श्रपने को शुद्ध किया था तथा दूसरे
ही कण उस ने यावा प्रथ्वी के सम्पूर्ण पदार्थों को जाना था अर्थात,
प्रत्यक्ष देश्वा था ।
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