धर्म का आदि प्रवर्तक | Dharam Ka Aadi Parvartak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अथान--हे वस्रसंहनन रुद्र, तू सम्पूण उत्पन्न हुये पदार्थों में अधिकतर शोभायमान है । तथा सब से श्रेष्ठ है, सब बलवानों में अधिक बलवान है ! इस लिये आप हमको (श्रंहस: पार) पापों से पार उतारों, तथा क्लेशों के 'अऑआक्रमणों से युद्ध करता हुआ विजयी बनू' ऐसी कृपा करो । मंत्र २ में स्पष्ट हैं कि (भेषजेभिः व्यरूदू द्रषो) अथात्‌ औषधियों से हमारा टेष दूर करो ! अतः स्पष्ट होगया कि यहाँ औषधि से अभिप्राय 'आात्मिक चिकित्सा से है, जिस के एकमात्र वेद उस समय श्री ऋषभदेव जी ही थे । तथा च, ऋ० मं० ३ सू० २६ में है-- पम्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृत॑ में चक्षुर्सृतं म आसन । 'अकस्त्रिघातू रजसो विमानाजस्रों धर्म्मों हविरस्मिनाम ।॥ज। न्रिभिः पतित्रेरपु्पाध्यक हृदामतिं ज्योतिरनुप्रभानन्‌ । वर्षिष्ठं रत्तसकून स्वघामिरादि दावा प्रधिवीपयपश्यत ।1८1। '्रधात--मैं अपि जन्म से ही (जात वेद) सवज्ञ हूं । (घृतं) ज्ञान प्रकाश ही मेरा नेत्र है । मरे मुख में असृत है अथात्‌ मेरा उपदेश माक्षफल दाता है । तीने (सम्यग्दशन, ज्ञान, चारित्र) मेरे प्राण हैं । मैं अन्तरिश्न आदि सम्पूर्ण लोकों का ज्ञाता तथा अक्षय हूं ॥७॥। ्न्त: करण द्वारा मनोहर युद्ध तत्मज्योति को जान कर तीन पबित्रूप साधनों से पूजनीय श्ात्मा को शुद्ध किया है | 'प्रम्मि ने श्रपने ही स्वरूप से श्रपने को शुद्ध किया था तथा दूसरे ही कण उस ने यावा प्रथ्वी के सम्पूर्ण पदार्थों को जाना था अर्थात, प्रत्यक्ष देश्वा था । | ४]




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