समयसार | Samaya Sar
लेखक :
अमृतचंद्रचार्य - Amrit Chandracharya,
जयचंद - Jaychand,
जयसेनाचार्य- Jaysenacharya,
श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary
जयचंद - Jaychand,
जयसेनाचार्य- Jaysenacharya,
श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
638
श्रेणी :
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अमृतचंद्रचार्य - Amrit Chandracharya
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जयसेनाचार्य- Jaysenacharya
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श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कक.
उक्त नब तत्वों में जीव व भ्रजीव तो द्रव्य हैं व पुण्य-पाप, झाख्रव भादि,पयपिं है । इसी कारण ये सात! जीव
रूप भी कहे गये हैं श्र भ्जीवरूप भी कहे गये हैं । जैसे जीव पुण्य, झ्जीव पुण्य झादि । जीव की परिशातियां जीव पुण्य
भ्ादि हैं व भ्रजीव (कम) की परिणतियां भ्रजीव पुण्य झ्ादि हैं। जीव परिरातियों के द्वार से चलकर उन परिणतियों के
स्रोतभूत गुण पर भाना झौर गुणद्वार से चलकर गुणों के अ्रमेद पुरुज अथवा गुणों के श्रोतभूत जीवद्रव्य पर श्राना यह
भूताथं नय की पद्धति है। इसी प्रकार श्रजीव में भी लगानी चाहिये । यह सब विषय प्रन्थ के झरध्ययन से स्फुट करना
चाहिये.। यहाँ तो विषयों का दिग्मात्र ही दिखाना है ।
जीवाधिकार
जीवाधिकार में सर्वप्रथम ही शुद्ध झ्रात्मा के स्वरूप, स्वामी व उपाय का ही एकदम सुगम रीति स वर्णन कर
दिया गया है, कि जो श्रपनी भ्रात्मा को (भ्रपने श्राप को ) झवद्ध, श्रस्पष्ट, श्रनन्य, नियत, श्रविशिप्ट व ग्रसयुक्त देखता है
उसे शुद्ध नय जानो, श्रथवा शुद्ध-नय से जेसा शुद्धश्रात्म तत्व देखा जाता है श्रात्मतत्त्व बसा ही शुद्ध जानो । यहीं जिन
शासन का सार है ।
इस शुद्ध झ्रात्मा का श्रद्धान ज्ञान व झ्ाचरण करना चाहिये । वस्तुत: श्रद्धान-ज्ञान-प्राचरण भी श्रात्मा ही
है । यद्यपि यह श्रात्मा स्त्रभाव से ही ज्ञानमय है किन्तु इसकी निज तत्व पर दृप्टि नहीं हुई; अत इसकी उपासना का
झादेश दिया गया है ।
समयसार का परिचय न होने से जीव की दृष्टि कम, शरीर व विभाव में “वह मैं हूँ या ये मेरे है” ऐसी
मान्यता की हो जाती है; भ्रौर जब तक ऐसी दृष्टि रहती है तब तक यह जीव श्रज्ञानी कहलाता है । इतना ही नहीं
ज्ञानी जीव के भूत, भविष्यत् का भी परिप्रह लगा रहता है। भ्रज्ञानी के यह धारणा रहतो है कि शरीरादिक में हू
थे मेरे हैं, में इनका हूँ, ये मेरे थे, मैं इनका था, ये मेरे होगे, में इनक! होऊँगा इत्यदि ।
परन्तु शरीरादिक श्रजीव पदार्थ व चेतन श्रात्मा एक कैसे हो सकते हैं * क्योंकि जीव तो ज्ञान नक्षण वाला
है प्रौर भ्रजीव ज्ञान रहित है । हे श्रात्मनू ! तू शरीर नहीं है, किन्तु शरीर का झभी पड़ोसी है, शरीर से भिन्न उपयोग
स्वरूप श्रपनी झ्रात्मा को देख ।
चूंकि जीवलोक को इस शरीर रूप में ही जीव का परिचय रहा है भ्ौर कभी धर्म भी चला तो इसी पद्धति
से, इसी कारण उक्त उपदेश की बात सुनते ही कोई शिष्य पूछता है कि प्रभो ! शरीर से निनन श्रात्मा कहाँ है? शरीर
ही जीव है, यदि शरीर ही जीव न होता तो तोर्थकर देव की जी ऐसी स्तुति की जाती है कि श्रापकी काति दसों दिशाश्रों
में फंल जाती है, श्रापका रूप बड़ा मनोहारी है, श्रापके १००८ शुभ लक्षण है, इत्यादि सब स्तुति मिथ्या हो जावेगी
तथा भाचायं परमेष्ठी की जो स्तुति की जाती है कि श्राप देश, जाति व काल से शुद्ध हैं, शुद्ध मन, बचन, काय वाले
हैं इत्यादि, वह भी स्तुति मिथ्या हो जावेगी । इस पर पूज्य श्री मत्कुन्दकुन्दाचर्य उत्तर देते है--
नय दो प्रकार कें होते हैं (१) व्यवहारनय (२) निश्चयनय । व्यवहारनय से तो देह व जीव का संयोग
संबन्ध है; इसलिए देह व जीव में कथंचित एकत्व मान लिया जता है, परन्तु निइचयनय से जीव में ही जीव है, देह
जीव हो ही नहीं सकता । शरीर की स्तुति से श्रात्मा की स्तुति व्यवहाररूप से कथंचित् हो सकती है, निइ्चयनय स
तो शरीर के गुण भरात्मा के कुछ नहीं है; इसलिए शरीर की स्तुति से श्रात्मा की स्तुति नहीं होती । श्रात्मा की स्तुति से
ही ग्रात्मा की स्तुति होती है । यहाँ यह श्रवइ्य जान लेना चाहिये कि जो श्रात्मस्वरूप से विलकुल श्रपरिचित है उसके
लिए तो व्यवहारनय से भी स्तुति नहीं कहला रूकती ।
भ्रब निए्चय स्तुति किस प्रकार हो सकती है इस विषय पर श्राते हैं । चूकिं यह निश्चय स्तुति है, इसलिये जो
भी विशुद्ध स्थिति कही जावेगी वह भ्रात्मा की ही कही जावेगी । झाचायें पूज्य श्री मत्कुन्दकुन्द प्रभु के द्वारा कही हुई
कि. नल
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