जय भारत | Jaya Bhaarat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऊलती तरंगों पर. मूलती-सी निकली , दो दो. करी-कुम्भी यहाँ हुलती-सी निकली / क्या शक्रव मेरा, जो मिल्ञी न शची सामिनी , बाहर की मेरी सखी भीतर की स्वापिनी । राह 1 कैसी तेजस्विनी धामिजात्य-धघमला , निकली पुनीर से यों क्लौर से ज्यों कमला ॥ एक शभ्ौर पर्च-सा तचा का थ्यार्द पट था , फूट-फट रूप दूने वेग से. प्रकट था । तो भी ढके अंग घने दौीर्घ कच-भार से , . सुद्म थी. कलक किन्तु तीक्ष्ण श्रसि-घार से । दिव्य गति. लाघव सुरांगनाधों ने धरा , स्वर्ग में सुगौरव तो. वासवी ने ही मरा । देह घुल्ली उसकी वा. गंगाजल ही घुल्ा , चाँदी घुलती थी जहाँ सोना भी वहाँ घुला । सुक्ता तुल्य बूँदें टपकी जो. बढ़े बालों से , चू रहा था विष वा मृत वह व्यालों से । थारही हैं. लहरें श्रमी तक सुमे यहाँ , जल - थल्न-वायु तीनों पानेर्छुक थे. वहाँ । बाह्म ही जहाँ का बना जैसे एक सपना , देखता मैं केसे. वहाँ श्रन्तम्पुर श्रपना । सबसे खिंचा-सा रहा. उद्धत प्रथम में , फिर जिस शोर गया हाय / गया रम मैं । वस्तुत। शची के लिए बात थी विषाद की , मागूंगा क्षमा मैं श्ाज श्रपने प्रमाद की |




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