जय भारत | Jaya Bhaarat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29 MB
कुल पष्ठ :
447
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ऊलती तरंगों पर. मूलती-सी निकली ,
दो दो. करी-कुम्भी यहाँ हुलती-सी निकली /
क्या शक्रव मेरा, जो मिल्ञी न शची सामिनी ,
बाहर की मेरी सखी भीतर की स्वापिनी ।
राह 1 कैसी तेजस्विनी धामिजात्य-धघमला ,
निकली पुनीर से यों क्लौर से ज्यों कमला ॥
एक शभ्ौर पर्च-सा तचा का थ्यार्द पट था ,
फूट-फट रूप दूने वेग से. प्रकट था ।
तो भी ढके अंग घने दौीर्घ कच-भार से ,
. सुद्म थी. कलक किन्तु तीक्ष्ण श्रसि-घार से ।
दिव्य गति. लाघव सुरांगनाधों ने धरा ,
स्वर्ग में सुगौरव तो. वासवी ने ही मरा ।
देह घुल्ली उसकी वा. गंगाजल ही घुल्ा ,
चाँदी घुलती थी जहाँ सोना भी वहाँ घुला ।
सुक्ता तुल्य बूँदें टपकी जो. बढ़े बालों से ,
चू रहा था विष वा मृत वह व्यालों से ।
थारही हैं. लहरें श्रमी तक सुमे यहाँ ,
जल - थल्न-वायु तीनों पानेर्छुक थे. वहाँ ।
बाह्म ही जहाँ का बना जैसे एक सपना ,
देखता मैं केसे. वहाँ श्रन्तम्पुर श्रपना ।
सबसे खिंचा-सा रहा. उद्धत प्रथम में ,
फिर जिस शोर गया हाय / गया रम मैं ।
वस्तुत। शची के लिए बात थी विषाद की ,
मागूंगा क्षमा मैं श्ाज श्रपने प्रमाद की |
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