कलाकार का दण्ड | Kalaakaar Kaa Danda

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० कलाकाए का दण्ड (४) दूसरे दिन नियुक्त समय पर शंख शझ्राया । दोनों मूर्तियां पौर में रक्‍्खी हुईं थीं । दोनों कलाकार द्वार बाहर चौपाल में बठ गये । बात- चीत होने लगी । शंख--'यवन, श्राप यदि वैष्णुत्र होते तो श्रपोलो की श्राकृति को बहुत सुन्दर बनाते |? न्तक--'मैं यदि वेष्णुत्र होता तो श्रपोलो की मूर्ति की मूल शिला पर पहिली टाँकी दृथौड़ी चलाने के पूव ही श्रात्मघात कर लेता ।? शुंख---“श्रात्मघात | यह तो बड़ा भारी पाप है । क्या श्राप लोग श्रात्मघात करने को श्रेयस्कर समभतते हैं १? झन्तक--'*्रात्मघात तो प्रत्येक दशा में निन्दनीय है, परन्ठु श्रापके देश में तो सब कोई दर समय अ्त्मघात करते रहते हैं ?” शंख--'सो कैसे यवन !” श्न्तक--'त्रापकी श्रात्मा स्वतंत्रता के साथ विचरण नहीं कर सकती । जहाँ देखो वहाँ झ्ञापका समाज श्र व्यक्ति निपेधों से जकड़ा हुआ है। प्रत्येक निषेध के सामने श्रापको सिर मुकाना पढ़ता है । इमारे देश में न तो इतने निषेध हैं और न निषेधों को इतनीं मान्यता प्राप्त है ।” शंख--'हमलोग नीचे ठोकर खाकर ऊपर देखते हैं । श्राप जिनको निषेघ कहते हैं इम उनको नियम के नाम से पुकारते हैं । श्राप हमारे जिस संयम को निषेघ कहते हैं इम उसी के द्वारा इस संसार को वश में कर लेते हैं श्रौर फिर श्रन्तर्यामी शक्ति में मिल जाते हैं ।” श्रन्तक--'दमारे देश में चलो तो देखोगे कि शओलम्पगिरि के देवताश्रों के समक् कैसे सुन्दर युवक श्र कैसी कैसी रूअबती सुन्दर यिं शपने खेलों द्वाग श्ानन्द आर श्चना को मभेंटती हैं । जितनी उनकी




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