जैन श्री रामकथा | Jain Shri Ramkatha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
291
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आये हैं श्री वरद्धमान जिन, विपुलाचल के ऊपर ।
माली ने वृतान्त कहा सब, श्रेणिक नृप से जाकर ।।
सुन कर शुभ यह समाचार वह, फूला नहीं समाया ।
सिंहासन तज कर परोक्ष में, प्रभु को शीश नवाया 11६11
मुदित हृदय होकर भूपति ने, भूषण सकल उतारे ।
राज्य चिन्ह सब छोड़ दान में, तत्क्षण सब दे डाले ।।
दिखने लगे उसे श्री प्रभुवर, निज आंखों के सनमुख ।
सदा पूज्य पुरुषों की स्मृति से, पाता हृदय अधिक सुख । 1७11
जिस प्रभु की सेवार्थ स्वर्ग से, आते सुरगण भू पर ।
आ पहुंचे वे वीर भाग्य से, स्वयं अहो मेरे घर ।।
चमक उठा इनके आने से, सुन्दर भाग्य हमारा ।
दे देकर उपदेश इन्होने, भू-का भार उतारा 11८ ।।
होकर गदू गदू हृदय भक्ति से, चले नृपति पुर बाहर ।
देख दूर से समवशरण को, तजा राज्य आडम्बर ।।
कर वन्दन त्रैलोक्य-नाथ को, बैठे भूप वही पर ।
अभयकुमार, वारिषेणादिक, आए परिजन मिलकर । 1९।।
प्रभु दर्शन का हर्ष नृपत्ति के, मन में नहीं समाया ।
अहो जगत् में आज नृपति ने, अनुपम वैभव पाया । ।
पुनः पुन. अवलोक नाथ को, दूग थे नही अधघाते ।
देख सौम्य-शशि को चकोर ज्यो, पुलकित-तनु सुख पाते ।।1१०।।
पू्वोदय वश वहां मनोहर, खिरी वीर की वाणी ।
सुनते उसे स्वच्छ मन हो कर, शिव-पथ इच्छुक प्राणी ।।
यह चेतन संसार-विपिन में, फिरता मारा मारा ।
पाता नही मोह के वश हो, दुख का कही किनारा 11₹ १11
चहु गति-गर्त अगाध भयानक, उसमे पड़े निरन्तर ।
आर्य क्षेत्र मानव कुल उत्तम, धर्म श्रवण है दुष्कर ।।
पा करके भी योग श्रवण, का दुस्तर श्रद्धा आना ।
श्रद्धा होने पर दुष्कर है, संयम को अपनाना 119 २।।
जैन श्रीरामकथा - १४
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