जैन श्री रामकथा | Jain Shri Ramkatha

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Jain Shri Ramkatha by गुणभद्र जैन - Gunabhadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आये हैं श्री वरद्धमान जिन, विपुलाचल के ऊपर । माली ने वृतान्त कहा सब, श्रेणिक नृप से जाकर ।। सुन कर शुभ यह समाचार वह, फूला नहीं समाया । सिंहासन तज कर परोक्ष में, प्रभु को शीश नवाया 11६11 मुदित हृदय होकर भूपति ने, भूषण सकल उतारे । राज्य चिन्ह सब छोड़ दान में, तत्क्षण सब दे डाले ।। दिखने लगे उसे श्री प्रभुवर, निज आंखों के सनमुख । सदा पूज्य पुरुषों की स्मृति से, पाता हृदय अधिक सुख । 1७11 जिस प्रभु की सेवार्थ स्वर्ग से, आते सुरगण भू पर । आ पहुंचे वे वीर भाग्य से, स्वयं अहो मेरे घर ।। चमक उठा इनके आने से, सुन्दर भाग्य हमारा । दे देकर उपदेश इन्होने, भू-का भार उतारा 11८ ।। होकर गदू गदू हृदय भक्ति से, चले नृपति पुर बाहर । देख दूर से समवशरण को, तजा राज्य आडम्बर ।। कर वन्दन त्रैलोक्य-नाथ को, बैठे भूप वही पर । अभयकुमार, वारिषेणादिक, आए परिजन मिलकर । 1९।। प्रभु दर्शन का हर्ष नृपत्ति के, मन में नहीं समाया । अहो जगत्‌ में आज नृपति ने, अनुपम वैभव पाया । । पुनः पुन. अवलोक नाथ को, दूग थे नही अधघाते । देख सौम्य-शशि को चकोर ज्यो, पुलकित-तनु सुख पाते ।।1१०।। पू्वोदय वश वहां मनोहर, खिरी वीर की वाणी । सुनते उसे स्वच्छ मन हो कर, शिव-पथ इच्छुक प्राणी ।। यह चेतन संसार-विपिन में, फिरता मारा मारा । पाता नही मोह के वश हो, दुख का कही किनारा 11₹ १11 चहु गति-गर्त अगाध भयानक, उसमे पड़े निरन्तर । आर्य क्षेत्र मानव कुल उत्तम, धर्म श्रवण है दुष्कर ।। पा करके भी योग श्रवण, का दुस्तर श्रद्धा आना । श्रद्धा होने पर दुष्कर है, संयम को अपनाना 119 २।। जैन श्रीरामकथा - १४




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