जयोदय महाकाव्य | Jayodaya Mahakawy

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ९९ 3 १२. अष्टपाहुडका पद्यानुवाव--यहू श्रेयोमार्ग में क्रमश: श्रकाशित हुआ है । १३. सातथ जीवम--इसमें मनुष्य जीवनकी महत्ता बताकर कत्त॑व्य पथपर चरूनेकी प्रेरणा की गई है । १४ स्वामी कुम्दकुन्द और सनातन जैन ध्मं--इसमें अनेक प्रमाणोंसे सत्याथं जेनधमंका निरूपण स्वामी कुल्दकुल्दके ग्रस्थोंके आधारपर किया गया है । डे प्रकार भध्ययन-अध्यापन करते हुए और नये-नये ग्रत्थोको रचना करते हुए जब आपकी युवावस्था बीती तव आपके मनमें चारित्रको धारण कर आत्मकल्याणकी भावना जगी । फलस्वरूप बालब्रह्मचारी होते हुए भी ब्रतरूपसे ब्रह्मचयं प्रतिमा वि० सं० २००४ में धारण कर ली । इस अवस्थामे भी भाप अपनी ज्ञानोपाजँनकी साधनामें बराबर कगे रहे और इस बीच प्रकाशित हुए सिद्धान्त ग्रन्थ श्रीघवल जयधघवल, महाबन्धका अपने विधिवत्‌ स्वाध्याय किया । जब विरक्ति और बढ़ी तो आपने वि० सं० २०१२ में क्षुल्लक दीक्षा ले ली । लगभग २-२ वर्ष तक और इसमें अभ्यस्त हो जानेपर आपकी विरक्ति और उदासोनता भौर भी बढ़ी भौर वि० स० २०१४ में आपने आचायं शिवसागरजी महाराजसे खानियां (जयपुर) मे मुनि दीक्षा ग्रहण की । तबसे आप मरण-पयंन्त बराबर निर्दोष मुनि ब्रतका पालन करते हुए निरन्तर शास्त्र अध्ययन-मसन और चिन्तनमे लगे रहे । आपका समाधिमरण नसीराबादमे ६ वर्ष पूर्व हुआ, जहाँपर सारी जेन- समाजने आपका भव्य स्मारक बनाया है । पर चिरस्थायी स्मारक तो उनकी उक्त अनुपम रचनाएँ हैं । भापने प्रौढ प्राह्लल और अनुप्रास, रस, अलंकार आदि काव्यगत सभी विशेषताओंके साथ जेनघमंके प्राणभूतत अहिंसा, सत्य आदि मूलब्रतों एवं साम्य- वाद, अनेकान्तवाद, कमंवाद भादि भागमिक एवं दार्शनिक विषयोंका प्रति- पादन करते हुए पॉँच काव्यग्रन्थोकी रचना की है । अन्तिम निवेदन जिन दातारोंने प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकादानाथ उदारता-पुबंक दान दिया है, उन्हें और धामिक प्रवृत्तिवाले स्वाध्याय-प्रेमी पाठकोंको इस महाकाव्यके पढतेपर सम्भवत: निराशा हस्तगत होगी कि स्व० आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराजने इसे रचकर स्वाध्याय करनेवालोंके लिए कौन-सी अनुपम वस्तु दी है? उन पाठकोंसे मेरा नगर निवेदन है कि इसे घर्मशास्त्रका ग्रन्थ न समझकर




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