कर्त्तव्य - पथ - प्रदर्शन | Kartvya Path Pradarshan

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Kartvya Path Pradarshan by ज्ञानसागर जी महाराज - gyansagar ji maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ को अंकुरित करने व्लि वीते अमित ह ऐसी पुस्तकों से अवश्य दूर रहना “चाहिये ।पुस्तकों से ही नहीं बल्कि, ऐसे तो,वातावरण से भी हर समय -बचते ही-रहना चाहिये; क्योंकि-मनुष्य के हृदय में भे ओर बुरे.दोनों ही तरह के:संस्कार हुआ करते हैं जो कि समय और-कारण:को: पाकर उदित ,हो जाया करते हैं;|. व्यापार .करते सम्रय मनुष्य का मन इतज़ा कछोर-हो जाता है कि वह क्रिसी गरीब को भी एक पैसे की शियायत:नहीं करता, परन्तु भोजन-करने,के समय में कोई भूखा, भपाहिज आ खड़ा हो तो उसे-मट हदो रोटी दे देता है1 मवलब यदी कि-इस-२ स्थान क्रा वातावरण भी इस्‌.र्‌ प्रकार का होता है, अतः मनुष्य का, मल सी वहाँ पर उसी रूपमे परिएमन कर जाया करता है। आप जब/सिनेमा हॉल मे जावेंगे तो.आपकां “दिल वहाँ कीस्वहल-पहुल देखने. भे छाछायित होगा परन्तु जब आप चलकर श्री भगवान्‌ के मन्दिरजी में ले तो वहाँ यथाशक्ति नमकार मन्त्र क जापर देना, र, भजन करना जसे कार्मों में आपका-मन-अवृत्त होगा |-हों) यह बात दूसरी है.कि अच्छे वातावरण में रहने का मौका -इस:ठ्ुनियादारी-के मनुष्य.को.बहुत कम मिलता है, इसका अधिकांश, समय तो बुरे वातावरण में ही बीतता है। अतः अच्छे विचार प्रयास करने पर भी कठिनता से प्राप्त होते हैं। और प्राप्त होकर भी बहुत कम समय तक ही ठहर ঘা ই। किन्तु चुरे विचार तो अनायास ही ओ जाया करते है तथा देर तक दिकाऊ होते हैं। अतः बुरे विचारों से बचने के लिए और- अच्छे विचारों को बनाये रखने के -लिये सत्साहित्य का अवलोकन, चिन्तन अवश्य केरते रहना चाहिये। ` है




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