अज्ञातवास | Agyatavas

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Agyatavas  by श्रीलाल शुक्ल - Shrilal Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आ गई । श्रपने सिर को रजनीकांत के कन्वे के सहारे टिकाकर शांखें मूंदे एक क्षण खड़ी रही । ने उसकी उद्धत उतप्त सांसें सुनते रहे । उसके मत्ये पर घिरे अ्रसंयत बालों को संवारते रहे । फिर उसने खौलीं । पूछा यहां श्रकेले वयों खड़े थे ? उन्होंने कहा चलो वहीं चलकर देखो तब मालूम होगा मैं वहां बयों खड़ा था । बच्चों की तरह घबराहट से सिर ह्विलावार वह बोली न न मैं वहां कंसे जा सकती हूं। दूर-दूर से लोग देखेंगे नहीं मैं छत पर खड़ी हूं क्या कहेंगे बताओ ? वे हंसने लगे । बनावटी सरलता के साथ पूछा बया कहेंगे वताधो न ? ः रानी ने कहा मैं कुछ नहीं जानती । यहीं से बताश्रो वहां खड़े होकर कया देख रहे थे ? रजनीकान्त पुर्व की श्रोर फैली हुई निर्वाध हरियाली को देखते रहे । फिर हाथ उठाकर इशारा करते हुए बोले वह देखो रानी मैं यही देख रहा था। एक मचलती हुई श्रावारा शाम । पागल हवाएं । ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की सजदूरी में बंधी क्षितिज को पत्लवों से छूने के लिए चारों श्रोर उड़ती बेसन टहनियां । हाथ-पैर पटकती रूठी हुई लताएं । पुर्व के श्राकाश में एक-दूसरे को जोर-ज़ोर से ठेलते हुए बदमस्त मटमैले बादल । शोरगुल श्र गरज । सहमकर भागती छिपती हुई बिजलियां । गिरते हुए सूरज को नीचे ढकेलकर काले मेघों के बस्धनों को तोड़कर बेकाबू बढ़ती हुई टीलों को चूमती पेड़ों के गले लिपटती बेशर्म किरखें । ढलानों श्रौर कछारों बागों श्रौर मैदानों में बेतकल्लुफी से लेटती हुई श्रस्थिर परछाइयां । झ्रज्ञातवास ७ १३




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