संस्कारविधि | Sanskaravidhi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
35 MB
कुल पष्ठ :
735
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)“के संसकारविधि। कर [७ थ
५ कथा जल. नॉनिधनपत स
अर्थः--हे ( प्रजापते ) सब मजा के स्वामी परमात्मा ( त्वद्ु) आप से (अन्य!)
भिन्न दूसरा कोई ( ता ) उन ( एतानि ) इन ( दिखा ) सब ( जातानि ) उत्पन्न
हुए जद च तनारिकों को ( न ) नहीं ( परि, दभूत्र ) तिरस्कार करता है अर्थाद
आप सर्वोपरि हैं (यत्कामा:) जिस २ पद, की कामना वाले हम छोग (ते ) आप
का ( जहुप: ) आश्रय लेव॑ और चाज्डा करें ( तत् ) उसर की कामना ( न: ) ह-
मारी सिड ( अस्तु ) होगे जिस से ( वयपू ) हम लोग ( रयीणामू ) धनेश्वयों' के
( पतय: ) स्वामी ( स्याम ) होतें ॥ दू ॥
कक, 6 रह #जे थक,
सना बन्धुजनता स विधाता घामान वद मु
व॑नानि विडवां । यत्रं देवा अमृतमानझशानास्तृती ये धा-
मंन्नप्येरपन्त ॥ ७ ॥ य० अ० ३२ मे १० ॥ ६८१
अर्थ:--दे मनुष्यों ( सः ) वह परमात्मा ( न: ? अपने लोगों को ( वन्घु: )
भ्राता के समान खुख गायक ! जनिता ) सकल जगन् का उत्पादक ( सः ) बह (वि-
घाता ) सब कामों का पूर्ण करने हारा , बिश्वा ) संप्रण ( भवनानि ) लोकमात्र
और ( धामानि ) नाम, स्थान जन्पों को ( पद ) जानता है और ( यत्र जिस ( तू-
| तीय॑ ) संपसारिक खुख दुःख से रडित नियानदयुक्त ( धामन् ) मोशन स्वरूप धा-
रण करने हारे परमात्मा में । अमृतपु मोक्ष को ( आनशाना। ) पाप्त होके देवा!)
विद्वान् लोग , अध्यरयन्त ' स्वेच्छा पूरक विचरते हैं बढ़ी परमात्मा अपना गुरु,
आचार्य, राजा और न्यायाधीश है अपने लोग मिल के सदा उस की भक्ति किया
करें ॥ ७ ॥। द४४
अग्न नय सुपथा राय अस्मान ।वश्वान देव वय
नानि विद्यन् । युयोध्यस्मज्जुंदुराण मेनो भूपिछान्ते
नम उक्ति विधेम ॥ ८ ॥ य० अ* ४० से० १६ ॥
अथ;--हे ( अग्ने ) स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप सय जगत के पकाश करने हारे (
क् १ सकल सुखदाता परमेश्वर आप जिस से ( दिद्वान ) संप्रण विद्यायुक्त हैं झपा
“कर के ( अस्मान् ) हम लोगों को ( राये ) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की मासि
हे
पुर्दकुलादकमुकतागजलत
ना
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