संस्कारविधि | Sanskaravidhi

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Sanskaravidhi by परमहंस परिव्राजकाचार्य - Paramhans Parivraajakachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“के संसकारविधि। कर [७ थ ५ कथा जल. नॉनिधनपत स अर्थः--हे ( प्रजापते ) सब मजा के स्वामी परमात्मा ( त्वद्‌ु) आप से (अन्य!) भिन्न दूसरा कोई ( ता ) उन ( एतानि ) इन ( दिखा ) सब ( जातानि ) उत्पन्न हुए जद च तनारिकों को ( न ) नहीं ( परि, दभूत्र ) तिरस्कार करता है अर्थाद आप सर्वोपरि हैं (यत्कामा:) जिस २ पद, की कामना वाले हम छोग (ते ) आप का ( जहुप: ) आश्रय लेव॑ और चाज्डा करें ( तत्‌ ) उसर की कामना ( न: ) ह- मारी सिड ( अस्तु ) होगे जिस से ( वयपू ) हम लोग ( रयीणामू ) धनेश्वयों' के ( पतय: ) स्वामी ( स्याम ) होतें ॥ दू ॥ कक, 6 रह #जे थक, सना बन्धुजनता स विधाता घामान वद मु व॑नानि विडवां । यत्रं देवा अमृतमानझशानास्तृती ये धा- मंन्नप्येरपन्त ॥ ७ ॥ य० अ० ३२ मे १० ॥ ६८१ अर्थ:--दे मनुष्यों ( सः ) वह परमात्मा ( न: ? अपने लोगों को ( वन्घु: ) भ्राता के समान खुख गायक ! जनिता ) सकल जगन्‌ का उत्पादक ( सः ) बह (वि- घाता ) सब कामों का पूर्ण करने हारा , बिश्वा ) संप्रण ( भवनानि ) लोकमात्र और ( धामानि ) नाम, स्थान जन्पों को ( पद ) जानता है और ( यत्र जिस ( तू- | तीय॑ ) संपसारिक खुख दुःख से रडित नियानदयुक्त ( धामन्‌ ) मोशन स्वरूप धा- रण करने हारे परमात्मा में । अमृतपु मोक्ष को ( आनशाना। ) पाप्त होके देवा!) विद्वान्‌ लोग , अध्यरयन्त ' स्वेच्छा पूरक विचरते हैं बढ़ी परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है अपने लोग मिल के सदा उस की भक्ति किया करें ॥ ७ ॥। द४४ अग्न नय सुपथा राय अस्मान ।वश्वान देव वय नानि विद्यन्‌ । युयोध्यस्मज्जुंदुराण मेनो भूपिछान्ते नम उक्ति विधेम ॥ ८ ॥ य० अ* ४० से० १६ ॥ अथ;--हे ( अग्ने ) स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप सय जगत के पकाश करने हारे ( क् १ सकल सुखदाता परमेश्वर आप जिस से ( दिद्वान ) संप्रण विद्यायुक्त हैं झपा “कर के ( अस्मान्‌ ) हम लोगों को ( राये ) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की मासि हे पुर्दकुलादकमुकतागजलत ना




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