रामानंद सम्प्रदाय | Ramanand Sampraday
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
59 MB
कुल पष्ठ :
547
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about बदरी नारायण श्रीवास्तव - Badri Narayan Shrivastav
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका दर
नारायणीय सम्प्रदाय
भणडायकर ने 'महाभारत” के वैष्णुव-सम्प्रदायों के सम्बन्ध मे विस्तृत सूच;
नाएँ भी दी हैं ।* “शान्तिपव के श्रन्तगंत नारयणीय-झंश से पता चलता है
कि मेरु पब॑त पर सबंप्रथम इस धर्म का उद्घाटन हु, स्वायम्भुव से इस शास्त्र
की उत्पत्ति हुई श्र भगवान् की उपस्थिति में इसका प्रख्यापन हुआ । भगवान्
के अन्तर्धान हो जाने पर चिन्र-शिखशिडयों ने इस धर्म का प्रचार किया । कालां-
तर में यह धर्म ब्दस्पति को मिला श्रौर बददस्पति से पुनः वसुउपरिचिर को । इसी
त्ंश में वासुदेव धर्म के मूल तत्वों का विवेचन भी किया गया है । वासुदेव को
“तभी श्रात्माओं का अन्तरात्मा श्रौर सबका खष्टा” कहा गया है | संक्षण, प्रद्युम्न
श्र अनिरुद्ध को क्रमशः जीवों का प्रतिनिधि, मस्तिष्क श्र श्रात्मज्ञान का प्रतीक
माना गया है श्रौर कहा गया है कि ये सब श्रादिशक्ति के ही रूप हैं । वाराहद,
दूसिह्द, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण आदि वासुदेव के ही श्रवतार कहे गए हैं । '
भौतिक पापों के नष्ट हो जाने पर जीव झनिरुद्ध रूप में प्रवेश करता है
तर फिर मस्तिष्क बन कर प्रद्युम्न रूप में, उसके पश्चात् वह संकपषंण रूप में
प्रवेश कस्ता है श्र फिर त्रिगुणों से युक्त दोकर परमात्मा वासुदेव में । कहा
गया है कि यह वही धर्म है जिसका उपदेश वासुदेव से नारद को मिला;
'हरिगीता” में जिसका निंदेंश किया गया है श्रौर कृष्ण ने जिसका उपदेश
श्रजेन को किया था। इस धर्म का मूल है “श्रद्दिसा । वसुउपरिचर के यश में
ारण्यक-प्रणाली का शझ्नुसरण करते हुए. पशुबलि भी नहीं दी गई थी ।* श्रतः
स्पष्ट है कि यह घम्म बौद्ध श्रौर जैन धर्मों की ही भाँति एक सुधार-श्रान्दोलन
था, यद्यपि इसकी पूरी श्रास्था श्रारण्यकों एवं परमात्मा मे थी । आगे चलकर
सात्वतों ने इस घम को अपना लिया ।
नारायशीय-झंश से यह भी स्पष्ट है कि पहले वासुदेव श्रौर उनके चतुब्यहों
की उपासना श्रज्ञात थी । परमात्मा को “हरि” कहा गया श्रौर यज्ञों से पूजापद्धति
एकदम मुक्त नहीं रही । कालान्तर में वासुदेव ने भगवदूगीता में वैष्णुव-धर्म
को एक निश्चित् रूप दिया । उन्होंने एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय ही चला दिया ।
उनके भाई, पुत्र-पौत्नादि ने भी इसमें सहयोग दिया श्र वे परमात्मा के रूप तथा
विभिन्न मनोवैज्ञानिक स्तरों के प्रतीक कहे गए, । सात्वत जाति ने आगे चलकर
इस धर्म को पूणतया श्रपना लिया ।
१--वैष्णविदम झा दि, भडारकर, पृ० द-११।
२-सभूता: सवसभारास्तस्मिन् राजन् महाक्रतौ ।
न तत्र पशुघातो 5भूत् स राजेवं स्थितो८भवत् ॥ ( शांतिपव ३३६ । १०
User Reviews
No Reviews | Add Yours...