संक्षिप्त सूरसागर | Sankshipt Soorsagar

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Sankshipt Soorsagar by बेनीप्रसाद - Beniprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१० | प्रकार भक्ति को सब ज्ञान, कर्म, तप, ब्रत, तोर्थ, येग, यज्ञ झाड़ि पर प्रधानता दी है-- न प्रेतो न पिशाचा वा राक्षसा वा सुरोपि वा । भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न श्रशुभंवेत्‌ ॥ १७ ।। न तपामिने वेदेश्व न ज्ञानेनापि कर्मणा । हरिहि साध्यते मक्त्या प्रमाण तन्न सोपिका: ॥ १६८ ॥ नणां जन्मसहस्रण भक्ती प्रीतिष्ठि* जायते । कली भक्ति: कला भक्तिमक्तया कुष्या: पुर: स्थित: ॥ १३ ॥ भक्तिद्रोहकरा ये व ते सीदन्ति जगत्ये । दु्वासा दुमखमापननः पुरा भक्तिविनिन्‍्दुक: ॥ २० ॥ 'लं घतेरलें तीथेरलं यागेर लें सगे: | लं ज्ञानकथालापैभंक्तिरेकेव मुक्तिदा ॥ २१ ॥ श्रीमदुभागवत-सादात्म्य अध्याय २ | भस्तु, भक्ति की यह घारा प्राचीन समय से देश में बह रही थी | मुसछमान घमे में भक्ति सुसलमानें के झाने पर इस धारा ने मुसलमान सक्तिम्मायं की घारा से सज्ञम किया ।. मुदम्मद ने उपदेश दिया था कि परमेश्यर एक है । परमेश्वर के प्रेम में सुदइर्मद्‌ मस्त है जाता था | आउबीं सदी में खुरासान श्राबू सुस्जिम शादि सन्त परमेश्वर के प्रेम में पेसे त्लीन दो गये कि झपने को ही परमेश्वर सम माने कोगे । परमेश्वर को उन्होंने इस सरहद अपना लिया था, परमेश्वर को ऐसा ार्मन्समर्पण कर दिया था, परमेश्वर में वे ऐसे तछीन हा गये थे कि भेद-भाव ही सिट गया था । फारस के घुनिया सन्त इलाज ने इस मक्ति-मागं को सुम्य- वस्थित करके सूफी घर्म का रूप दे दिया । प्रेम में मस्त देकर वह चिट्लाता था कि मैं सत्य हूँ भ्रथात्‌ परमेश्वर हूं; जो वैदान्तिक 'तस्वमसि' का स्मरण दिलाता है। इछाज लिखता है कि जा कोई तप से भपती




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