जैन शिलालेख संग्रह भाग - 4 | Jain Shilalekh Sangrah Bhag - 4

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Jain Shilalekh Sangrah Bhag - 4  by विद्याधर जोहरापुरकर- Vidyadhar Joharapurkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्रस्ताव ना न भ्व्दक न, व श्फि प्भे स्वय इन छह परम्पराओंके उल्लेख विस्तारसे मिलते है । इनका अब क्रमदा: विवरण प्रस्तुत करेंगे । (आ ३) सेनगण--इसका प्राचीनतम उल्लेख सन्‌ ८२१ का है ( क्र ५५ ) । इस लेखमे इसे “चतुष्टय मुलसंघका उदयान्वय सेनसंघ' कहा हैं। इसको आचार्यपरम्परा मल्लवादी-सुमति पूज्यपाद-अपराजित इस प्रकार थी । छेखके समय गुजरातके राष्ट्रकूट दासक कर्कराज सुवर्णवर्षने अपराजित युरुको कुछ दान दिया था । सेनगणके तीन उपभेद थे - पोगरि अथवा होगरि गच्छ, पुस्तक गच्छ, एवं चन्द्रकवाट अन्वय । पोगरि गच्छका पहुला लेख ( क्र० ६१) सन्‌ ८९३ का है तथा उसमें विनयसेमके शिष्य कनकसेनकों कुछ दान दिये जानेका उल्लेख है । इस लेखमे इसे मूलसंघ-सेनान्वयका पोगरियगण कहा है । दूपरा लेख (क्र० १३४) सन्‌ १०४७ का हैं तथा इसमें नागसेन पृण्डितको सेनगण-होगरि गच्छके आचार्य कहा है। इन्हे चालक्य राज्ञी अव्कादेवीने कुछ दान दिया था । चन्द्रकवाट अन्वयका पहला लेख ( क्र० १३८ ) सन्‌ १०५३ १. पहले संग्रहमें उन्लिखित देवगणका कोई लेख इस संग्रहमें नहीं है । पहले संग्रहमें मूठसंघके प्राचीन उल्लेख ( क्र० ३०, ९४ ) पॉचवों सदीके हैं। तथा उनमें गण आदिका उद्छेख नहों २. पहले संग्रहसें सेनगणका प्राचीनतम उल्छेख सन्‌ ९०३ का हैं ( क्र० १३७ ) । इसे देखकर डॉ० चौोघरीने कल्पना की थी कि गादिपुराणक्ता जिनसेन ही सेनगणके प्रवलक होगे ( तीसरा भाग प्रसर्त।बना प्रृ० ४४ ) किम्तु प्रस्तुत छेखरीं जिनमनके गुरु वीरसेनके समय ही सेनसंबकी परम्पराका जस्वित्व प्रमाणित होता है । घॉररेनने घबकाटीकाकी रचना सखू ८५६ में पूण की थी । पहले संग्रहमें पागरिगच्छके चार उल्लेख सन्‌ १०४५ से १२७१ तक के आय हैं । (ऋ० १८९,२१७,५८६,५११) छ




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