जैन शिलालेख संग्रह भाग - 4 | Jain Shilalekh Sangrah Bhag - 4
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
570
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about विद्याधर जोहरापुरकर- Vidyadhar Joharapurkar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ्रस्ताव ना न
भ्व्दक न, व श्फि प्भे
स्वय इन छह परम्पराओंके उल्लेख विस्तारसे मिलते है । इनका अब
क्रमदा: विवरण प्रस्तुत करेंगे ।
(आ ३) सेनगण--इसका प्राचीनतम उल्लेख सन् ८२१ का है
( क्र ५५ ) । इस लेखमे इसे “चतुष्टय मुलसंघका उदयान्वय सेनसंघ' कहा
हैं। इसको आचार्यपरम्परा मल्लवादी-सुमति पूज्यपाद-अपराजित इस
प्रकार थी । छेखके समय गुजरातके राष्ट्रकूट दासक कर्कराज सुवर्णवर्षने
अपराजित युरुको कुछ दान दिया था ।
सेनगणके तीन उपभेद थे - पोगरि अथवा होगरि गच्छ, पुस्तक
गच्छ, एवं चन्द्रकवाट अन्वय । पोगरि गच्छका पहुला लेख ( क्र० ६१)
सन् ८९३ का है तथा उसमें विनयसेमके शिष्य कनकसेनकों कुछ दान
दिये जानेका उल्लेख है । इस लेखमे इसे मूलसंघ-सेनान्वयका पोगरियगण
कहा है । दूपरा लेख (क्र० १३४) सन् १०४७ का हैं तथा इसमें नागसेन
पृण्डितको सेनगण-होगरि गच्छके आचार्य कहा है। इन्हे चालक्य राज्ञी
अव्कादेवीने कुछ दान दिया था ।
चन्द्रकवाट अन्वयका पहला लेख ( क्र० १३८ ) सन् १०५३
१. पहले संग्रहमें उन्लिखित देवगणका कोई लेख इस संग्रहमें नहीं
है । पहले संग्रहमें मूठसंघके प्राचीन उल्लेख ( क्र० ३०, ९४ )
पॉचवों सदीके हैं। तथा उनमें गण आदिका उद्छेख नहों
२. पहले संग्रहसें सेनगणका प्राचीनतम उल्छेख सन् ९०३ का हैं
( क्र० १३७ ) । इसे देखकर डॉ० चौोघरीने कल्पना की थी कि
गादिपुराणक्ता जिनसेन ही सेनगणके प्रवलक होगे ( तीसरा भाग
प्रसर्त।बना प्रृ० ४४ ) किम्तु प्रस्तुत छेखरीं जिनमनके गुरु वीरसेनके
समय ही सेनसंबकी परम्पराका जस्वित्व प्रमाणित होता है ।
घॉररेनने घबकाटीकाकी रचना सखू ८५६ में पूण की थी ।
पहले संग्रहमें पागरिगच्छके चार उल्लेख सन् १०४५ से १२७१
तक के आय हैं । (ऋ० १८९,२१७,५८६,५११)
छ
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