भावप्रकाशनम | Bhavaprakashanam

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Bhavaprakashanam by मदन मोहन - Madan Mohan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरोवाक्‌ शारदातनय का भावप्रकाशन अदभुत ग्रन्थ है । शारदातनय ने शारदादेश की सम्पूर्ण सस्कृति को सहज रूप मे अपना लिया था । उन्होंने अभिनवभार ती का पर्याप्त मनन किया था । नाट्याचार्यों की परम्परागत विद्या का स्वय अभ्यास किया था । गीत, छत्य, संगीत के वे पारगत थे । लोकजीवन मे बहती हुई सास्कृतिक धारा मे भी य थेषट अवगाहन किया था । पु्वेवर्ती महाकवियो के प्रबन्धो के वे मर्मंज्ञ थे । देश-देशान्तर में श्रमणकर अपार ज्ञानराशि का सचय किया था । उन सबका समा हार भावप्रकाशन है । भरत का नाट्यशास्त्र दृत्य और संगीत प्रधान है । उनके शिष्य कोहुल ने लोकजीवन से सम्बन्ध रखने वाली उन सभी कलाओ, गीतो और उपरूपको का विश्ले- षण किया जिनके केवल बीज भरत मे मिलते है या जो बिलकुल अछूते रह गये है । सागरनन्दी, रामचन्द्र गुणचन्द्र आदि ने भरत और अभिनवगुप्त के आधार पर नाट्य- विद्या को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया था । अनेक कश्मीरी चिन्तको ने नाट्यबविद्या की विव्वत्ति की थी, जिनके अब केवल नाम यत्र-तन्र सुरक्षित है । ऐसा जान पडता है कि शारदातनय के समक्ष नाट्यशास्त्र की अदूभुत परम्परावाली व्याख्या-पद्धति अवश्य उपलब्ध रही होगी । शारदातनय ने १२वी शताब्दी तक की नाट्यशाख्रीय कश्मीरी परम्परा को भावप्रकाशन मे बहुत कौशल के साथ उपनिबद्ध कर दिया हैं। १२वी शताब्दी तक आते-आते साहित्यशास्तर मे भी कश्मीर की प्रतिभा अपनी पराकाप्ठा तक की अविच्छिन्न धारा भावप्रकाशन की लहरियो मे समाविष्ट है । नाट्यतत्त्व और काव्यतत्त्व दोनो एकत्र भावप्रकाशन मे देखे जा सकते है । किन्तु शारदातनय को इतने से सतोष नहीं था, वे सगीत के परम मर्मंज्ञ थे, अभिनवगुप्त की परम्परा को तो वे जानते ही थे, उस समय तक सगीत की पारसीक परम्परा से भी वे परिचित हो चुके थे जिनका विकास आगे चलकर सगीत-रत्नाकर मे दिखायी देता है । साथ ही सगीत की दाक्षिणात्य शैली से भी वे अवगत थे, इनके अतिरिक्त सगीत के उन तत्त्वो से वे परिचित थे, जो केवल अभी लोकजीवन मे थे । शा की ऊँचाई तक नही पहुँच सके थे । शारदातनय ने बहुत ही उदारता के साथ भावप्रकाशन मे इन सब को एक मे गूँथ दिया है । १२वी शताब्दी तक आते-आते साहित्य के क्षेत्र मे नायिका-भेद की चर्चा मुखरित हो चली थी, उसकी न तो नाट्यशास्त्र के विवेचक अनसुनी कर रहे थे और न काब्य- शास्त्र के अध्येता उसकी उपेक्षा कर सकते थे । शारदातनय ने भी साहित्य के इस पक्ष को भरत से आगे बढा दिया । भरत ने धीरोदात्त आदि नायक-गुणो के आधार पर, वय के आधार पर, जातिगत-शील के आधार पर, नाटकों मे प्रयुक्त ख्रीपात्रो के आधार पर




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