गांधी वैष्णव जन | Gandhi Vaishnav Jan

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Gandhi Vaishnav Jan by डॉ. ज़ाकिर हुसैन - Dr. Zakir Husain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वापूजी अपनी नाम-साधना को प्रकट नहीं करते होगे; अथवा घर्मसाधना की परणति के कारण उनकी नाम-साधना अव उत्कट हो रही होगी । लेकिन आपका निरीक्षण सही है। उनकी साधना इतनी तेजी से बढ रही है कि उनका असर मैं उनके चेहरे पर भी देख रहा हू । गाधीजी के, जो पुराने फोटो उस समय मुझे यथाथें लगते थे, आज कुछ फीके से लगते है । गाघीजी को पुरी तरह से व्यक्त नहीं करते, ऐसा थोडा-सा असन्तोष रह जाता है ।”' गांधीजी की धर्म-साधना में दूसरी एक मौलिकता है --निरभिमानिता और नग्रता की । यह साधना देखने मे आसान लगती है, लेकिन जीवनशुद्धि और साधनाशुद्धि के बारे मे जो लोग अत्यन्त कुशल और सतकं होते हे, वे जानते है कि नम्रता की साधना करना टेढी खीर हे । इस चीज को थोडा स्पष्ट करना जरूरी है । भारत लौटते ही जब गाधीजी ने अपना एक आश्रम खोलने का विचार किया तो उन्होंने अपनी कल्पना छाप- कर भारत के प्रमुख विचारको के पास सलाह-सूचना के लिए भेजी । उसमे आश्रम के ब्रत भी दिये थे । बगाल के एक विख्यात शिक्षा-शास्त्री ने योजना को पसन्द करते हुए लिखा कि ग्यारह ब्रतो मे एक विशेष व्रत बढाने लायक है---नम्रता । इस सूचना की चर्चा, करते गाघीजी ने समभाया कि “व्रत वह चीज है, जो हम सतत्‌ प्रयत्न से, अपने जीवन मे लाते है । सजग रहकर उसकी साधना करनी पड़ती है । नग्रता को मैं ब्रत नही कहूगा । नम्रता अच्छी चीज है, वह आप-ही-आप आनी चाहिए । वाकी के ब्रतो का पालन निष्ठापूरवंक किया तो ब्रतपालन की कठिनाइया समभते- वाला नख्र बनेगा ही ।” लेकिन अगर हम नख्र बनने का खास प्रयत्न करने गये तो प्रयत्न कृत्रिम होगा । वह दम्भ का रूप लेगा और मामला विगड जायगा । इसलिए मैं नख्रता को पसन्द तो लि करता हु, लेकिन उसे व्रत के रूप मे विशेष स्थान नही दूगा। यह सारा किस्सा विनोबाजी जानते थे, इसलिए उन्होने अश्रम के ब्रतो के इलोको की रचना करतें समय आखरी पक्ति बनाई-- विनम्र ब्रत-सिष्ठा से थे एकादश सेव्य है । व नम्रता की बात करते गाधीजी ने एक वार विनोद मे कहा था--“अगर मै पचास वर्ष का हू तो क्या नग्रता धारण करने के लिए कहूं कि मैं ४५ वर्ष का या '४९ वर्ष हु? नग्रता का सत्य के साथ मेल बैठना ही, चाहिए ।” सच्चा भक्त जीवन-साधना करते अपनी कमजोरियो को इतना पहचान लेता है कि जो कुछ भी सफलता मिली, भगवान की कृपा के कारण ही मिली, ऐसा समभता है और नख्र बनता है । अभिमान उसे छू तही सकता । एक ओर आत्मविद्वास, उसके साध ब्रत-पालन की दृढ़ निष्ठा और दूसरी ओर नम्रता । ऐसी साधना जहा चल रही है, वहा अभिमान, गये और घमण्ड को स्थान ही नहीं रहता । निरभिमानता भक्त का लक्षण है, किन्तु वह उसकी साधना का अग नही है। एक महाराष्ट्री भक्त ने भगवान से ही प्राथना की है कि अहकार की हवा विष्णु दासो को कभी सुई ही नही । अहकाराचा वारा न लागो राजसा । साभशिया. विष्णुदासा विष्णुरूपा ॥ सब भक्त जानते है कि अहकार से बचना बडा कठिन है। इसीलिए वे विष्णु रूप होने पर भी उसीकी मदद की याचना करते है । भारत के धर्म-इतिहास मे, बल्कि दुनिया के धर्म-इति- हास मे, सबसे श्रेष्ठ स्थान है भक्ति का । ज्ञानयोग, ध्यान- योग, कर्मयोग, उपासना-योग, अनासक्ति-योग ये सब उत्तम योग है । लेकिन सब योगो मे योग--शिरोमणि है भक्ति- योग । सब धर्मों की सन्त-वाणी मे से अगर भक्ति का हिस्सा निकाल दिया जाय तो बाकी क्या रहेगा * अहूत- वादी ज्ञानयोगी शकराचार्य॑ कहते आये है--“ज्ञानात्‌ एव तु कंवल्यम्‌ । तो भी उन्होंने कहा है--मसोक्ष-कारण-सामग्रयी भक्तिरेव गरीय॑सी । मोक्ष के जो अनेक साधन है, उन सबमे भक्ति ही श्रेष्ठ है । भक्ति का यह माहात्म्य स्वीकार करते हुए और “भक्ति ही जीवन-साधना का _ सर्वेस्व है' इतना जानते हुए कहना पड़ता है कि भक्ति कोई गलग साधना हो नहीं सकती । भक्ति असल मे जीवन-योग की स्वाभाविक, सुवास, ही है । हम अपनेको “ईदवर का दास' माने, 'ईदवर का पुत्र माने, पी ं गाघी-चरित्र : वैष्णव जन' का भाएय «




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