अध्यात्म रत्नत्रयी | Adhyatmaratnatrayi

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Adhyatmaratnatrayi by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवाँजीव अधिकार आत्मा न जानि मोदी, बहुतेरे परको झात्मा कहते । अध्यवसान तथा विधि, को आतमरूपमें लखते ॥३६॥ कइ श्रध्यवसानोंमें, जीव कहें तीघ्रमंदफलततिको । कोई -आात्मा मानें, इन नानारूप देहोंको ॥४०॥ कोई कर्मोदयको, जीव कहें कम पाक सुख दुखको । तीव्रमंद अंशोमें, जो नाना अजुभवा जाता ॥४१॥ _ जीवकर्म. ' दोनोंको, मिला हुआ कोइ जीवको जानें । अप्टकर्मसं योग, हि, कितने दही जीवको मानें ॥४२॥ . ऐसें नाना दुर्मति, परतत््तोंको हि आत्मा कहते । वे न. परमाथवादीं, ऐसा तत््वज्ञ दर्शाते ॥४३।॥। उन सब परमार्वोको, पुदूगलद्रव्यपरिंतामसे जाये । केवलि जिन दर्शाया, केसे वे जीव हो सकते ॥४४॥। आठों ही कर्मीको, पुदूगलमय हो जिनेन्द्र बतलोते । जिनके _ कि उदयका फल, सारा दुखरूप कहलाता ॥४४॥ वे झध्यवसानादिक, जीव .कहे कहीं ग्रन्थमें वद सब ।.. व्यवहारकी हि. दर्शन, लिनवर पूर्व वर्णित हे ॥॥४४॥ . बखसमुदयको राजा इतना विस्टृत चला हुआ कहना च्यवहारमात्रचर्चा, * निश्वयसे एक नर चूप हे ॥४७॥




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