कायाकल्प | Kayakalp

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Kayakalp by बुद्धदेव विद्यालंकार - Buddhdev Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्म कया है ? की आधी है। दिया प्र से बुमे चाहे आऑआँधी से-- इससे उसके प्रकाशहीन होने में कुछ अन्तर नददीं आता । जिस मुददज्ले से तुम रहते दो ग्रदि उसकी नालियों डुगेन्ध- युक्त हैं और चारों ओर कीचड़ सड़ रद्दा है; मच्छरों की वस्तियों बस रही हैं, लोग मैले-कुचेले, श्नपढ़, रोगों के मारे और निर्धनता के सताए हुए हैं, और; तुम डन अवरस्थाओं में परिवर्तन करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हो तो मत समको तुम धर्मात्मा हो । चाहे तुम कितनी भी लम्बी समाधि लगाते दो, कितना भजन- कीर्तन करते हो, कितने घण्टे-घड़ियाल धजाते हो और कितनी भी सामग्री फूँक देते हो, तो भी तुम धमोत्मा नद्दीं दो । यदि तुम्द्दारे मन्दिर की आरती ने, तुम्हारी लम्वी सन्ध्याओं ने और तुम्हारी पांच नमाज़ों ने तुम्हारी झाँखों को रारीवों का दुःख देखने के लिए, तुम्हारे कानों को उनकी ददे-भरी झाह्ें सुनने के लिए और तुम्हारे हाथों को उनके कष्ट-निवारण के लिए विवश नहीं किया तो तुम आंखें रखते भी झअन्धे हो, कान रखते भी बहरे हो, द्ाथ रखते भी ले दो। संसार में आज तक जितने भी मद्दात्मा धर्म का प्रचार करने श्ाए बह इस छी समवेदना की भावना का प्रकाश तुम्द्दारे दिए-वत्ती में जलाने छाए थे । पादरी लोग 3 यू




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