साहित्यालोचन | Sahityalochan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कला कि ज्ञान; भक्ति और कर्म के नास से वार बार हुई है। यह भी हम भली भांति जानते है कि कर्म तो प्रत्यक्ष व्यवहार में देख पड़ता है, ज्ञान दशन, विज्ञान आदि के शाख्रों को जन्म देता है और भाव का संबंध साहित्य के सुकुमार जगत्‌ से होता है। इसी से साहित्य में भाव की प्रधानता रहती है । मकृति के विभिन्न स्वरूपो और रूप-चेट्राओं का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है आर वे ही उसकी असिव्यंजना के विपय बनते हैं, उसके मन में भाव उत्पन्न करते है। इस दृष्टि से कला और म्रकृति का घनिप्ठ संबंध प्रकट होता है। प्रकषति के जो चित्र अपनी विशेपताओओ अथवा मनुष्य की अभिरुचि के कारण उसके मन में अंकित होते हैं'उन्हे ही वह कलाओं द्वारा ड्यंजित करता है । प्रकृति को ओर सनुष्य निसर्गत: आकृट रहता है, क्योंकि उससे उसकी चासनाओ की दृप्ति होती है। इस सैसर्गिक आकर्षण का परिणाम यह होता है कि मनुष्य प्रकृति के उन चित्रों को अपने दद्य के रस से सिक्त कर अभिन्‍्यंजित करता है और वे ही सिन्न मिन्न कलाओं के रूप में प्रकट हो मानव-हृदय को रसान्वित करते हैं । भार- तीय साहित्य में इसे ही “रस” कहते हैं, पर साहित्य से ही नहीं अन्य कलात्यो से भी इसकी निष्पत्ति होती है। किसी प्राकृतिक दृश्य को देखकर कत्ताकार के दृदय में जो भावना जितनी तीव्रता अथवा स्थायित्व के साथ उदय होगी बह यदि उतनी ही वास्तविकता (सच्चाई) के साथ उसे व्यक्त करने में समर्थ हो, तो उस अभिव्यक्ति से दर्शक, श्रीता अथवा पाठक समाज की थी उतनी ही दृप्ति हो सकती है। मनुप्य मलुष्य के दृदय-साम्य का यही रहम्य है कि कलाकार की अंतराप्मा का सच्चा भाव उसकी कलनावस्तु में निहित होकर अधिकाधिक सानव-ससाज को रसान्वित करने में समर्थ होता है। परंतु जब कभी कलाकार का जीवन अथवा जगत-संबंधी अनुभव सच्चा नहीं होता तब वह उन्हे उचित रीति से व्यक्त करने में कृत्तकाय नहीं होता और मानव-समाज उसकी कृति से तृप्ति नहीं प्राप्त करता । यही कलाकार की सफलता है । कला और प्रकृति




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