स्वर्ण - जयन्ती - ग्रन्थ | Swarn - Jayanti - Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ष श्री झ० भा श्वे० स्था० जैन कॉन्फरन्स स्वर्ण-जयन्ती-अ्रन्थ केसीपीसीपीपीपीपीपीपीवपीपीबीफीदीकीपीपीपीफफीरीशीपीएर नीकीफीपीपीपी पी फीकीकीपीपीपीपीफीपीफेपीनीपीपफीशीपेपीपफफफकीफीपीकीकीफीकीफीकेकीशेपीफीफीए , + दुशनकें साथ सम्बन्ध रखने वालों मे खासकर सूत्रकृत, श्रज्ञापना, राजम्रश्नीय, भगवती, नन्दी, स्थानांग, समवाय 'और अलुग्रोग सूत्र मुख्य हैं । सून्रकृत मे तत्कालीन मन्तव्योका निसकरण करके स्वमत की श्ररूपणा की गई है । भ्रूतबादियों का निरा- करण करके 'झात्माका पृथक स्तित्व बतलाया है ! न्नह्मवाद के स्थान मे नानात्मचाद स्थिर किया है । जीवन '्औौर शरीरकों पुथक बताया है । करममें है । और उसके फलकी सत्ता स्थिर की है। जगदुत्पत्ति के विपय मे नानावादों का निराकरण करके विश्वको किसी इंश्वर था ऐसे ही किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया, चह्द तो श्मनादि अनन्त हैं, इस बात की स्थापना की गई है। तत्कालीन विनयवाद, श्रक्रियावाद 'ओऔर 'झज्ञानवाद का निराकरण करके सुसस्कृत क्रियाबाद की स्थापना की गई है । श्रज्ञापनामे लीवके विविध भावों को लेकर विस्तार से विचार किया गया है । राजमइनीय से पाश्बनाथ की परम्परा से हुए केशीक्षमण ने श्रावस्ती के राजा पएसी के प्रश्नों के उत्तर मे नास्तिकबाद का निराकरण करके आत्मा 'और तत्सम्बन्धी झनेक बातों को दृष्टान्त उ्तैर युक्ति पूवक समभाया है भगवतीसूत्र के अनेक प्रश्ने त्ततें में नय, प्रमाण छादि 'झनेक दार्शनिक विप्वार विखरे पड़े हैं । ननन्‍्दीसूत्र जन दृष्टि से ज्ञान के स्वरूप और भेदोंका विश्लेपण करनेवाली एक सुन्दर कृति है । स्थानांग और समवायांग की रचना वौड्रों के अगुत्तरनिकाय के टग की है । इन दोनों में २ झात्मा, पुद्गल्, ज्ञाच, नप छोर प्रमाण ादि विषयों वी 'चर्चा की गई है । भगवान्‌ महदाबीर के शासन में हुए निन्‍्हवों का. बर्णन स्थानांग में है । ऐसे सात व्यक्ति बताए गये हैं जिन्होंने कालक्रम से भगवान्‌ महावीर के सिद्धातों की भिन्न सिन्न बात को लेकर अपना मतभेद्‌ श्रगट किया है । वे ही निन्‍्हदव कहे गये है । वमलुयोग से शब्दाथे करने की प्रक्रिया का बर्सुन सुख्य है किन्तु भ्रसज् से उसमें प्रमाण्ण श्औौर नय का तथा तन्त्वों का निरूपण भी झच्छे ढंग से हुआ है । जेन तज्ञान का मूल तन्ल--झनेकान्त जैनघम का मुख कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या ध्में पन्थ, उसकी ाधारभूत--उसके सूल श्रवतैक पुरुष की--अबएक खास इृष्टि होती हैं, जते कि-शकराचार्ये की 'झपने मतनिरूपण में अद्दे तहष्टि' और म्हास्मा चुद्ध की ापने घर्मे-पन्‍्थ प्रवर्तन में “मध्यम प्रतिप थ दृष्टि खास इृष्टि है । जनदशैन भारतीय दर्शनों से एक विशिष्ट दर्शन | और साथ ही एक पिशिष्ट घर्म--पन्‍्थ भी है, इसलिए उसके प्रवतेंक और प्रचारक सुख्य पुरुषों की एक खास दृष्टि उसहै मल में होनी ही चाहिए और वह है भी । यहीं दृष्टि छनेकान्तवाद है । तात्त्यिक जैन विचारणा अथवा ब्माचार व्यवहार छुलछ भी हो वह सब नेकान्त-दृष्टि के झाघार पर किया जाता है और उछी के झाधार पर सारी विचार धारा फेलती है। अथ+ यों कहिये कि अनेक प्रकार के विचारों तथा आचारों में से जैन विचार च्और जेनाचार क्‍या .हैं ? केसे हो सकते हैं ? इन्हें निश्चित करने वा कसने की एक मात्र कसौटी भी अनेकान्त ऊप्टि ही है ।




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