सूर - सुषमा | Soor - Sushama

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १३. | के काव्य में जो श्रलौकिंक अध्यात्म है चद शझ्रधिकायि्यों के लिये सदैव सुरक्षित है । मनोविज्ञान के पंडितों को सुर के काव्य में जो कुछ झ्संगति अनु भव होती है उसे भी दम सुन लें । श्ारंम में जव॒सूर प्रतिज्ञा करते हैं कि वे सगुण. के पद कहेंगे तब दम आशा करते हैं कि वे भगवान्‌ के युरों का गान करेंगे । विनय के पदों से यह गान प्रारंभ दोता है , किंठ इतने शुण-गान से ही कवि की लालसा महीं मिटती । वह कृष्ण की श्रवत्तारणा करता हैं श्ार तय वे ही कृष्ण ( सगुण भगवान्‌ ) काव्य में हमारे सामने आते हैं । सादित्यिक्त मनोविज्ञान के विद्यार्थी को सूर का यद्द चमत्कार बहुत श्रधिक रुचेगा कि उन्होंने “दिक्रथ, श्नादि, उनंत, अनूप शुखमय भगवान्‌ को कृष्ण-रूप में झवतसिति किया है । इस श्रवतार का मनोवैज्ञानिक प्रभाव यद्द पड़ता है कि कृष्ण ऋतिशय द्राकर्पणु-संपन्न शरीर तेजस्वी बनकर हमारे सम्मुख आते हैं । जैसे विंदु में पिंधु के समा जाने की कल्पना सत्य हो गई हो ऐसा एक चमत्कार बोध होता है । पाश्चात्य साहिस्य में भी प्रतिमा के भीतर विराट रुप मरने की चेशा की गई है । महाकाव्यों सें प्रायः सर्वत्र, ्ौर उपन्यास, नाटक श्रादि सामान्य साहित्य में भी कितनी ही झसा- घारण प्रमावशालिनी, शक्तिमयी तर सुंदर मूर्तियाँ श्रंकित की गई हैं । चाइरन जैसे प्रेमिक कवि को भी “चाइल्ड देराल्ड* की विशाल सषि करने की साध थी और रोम्याँरोलाँ ने तो अभी श्रपने जॉन फ्रिस्टोफर' नाम के उदात्त पा पर नोवल पुरस्कार प्राप्त किया है । किंतु यदि काव्यकला और मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो सूर के कृष्ण का अवतरण जॉन फ़िस्टोसर आदि के विकास से कहीं अधिक पमत्कारी दौर शक्तिपूर्ण झनुमव होता है । इसमें असंभव की यदि कुछ वात है तो शुष्क दार्शनिक साथापच्ची का विषय हे, काव्य में तो उस “श्रसंभव' की मी अनुपस ही छुटा छाई है | कप्ण की बाललीलाओं का विद्युत-प्रवाद हमारी नसों में दौड़ने द




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