तर्कभाषा | Tarkabhasha

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Tarkabhasha by बदरीनाथ शुक्ल - Badrinath Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ *५ 3 है और दूसरा ओपाधिक है, क्योंकि दोनों वातें सम्भव हैं। यह हो सकता है कि इस नामों में वात्स्यायन' नाम सांस्कारिक हो तथा 'पढिक्ष' नाम व्यावहारिक-पुकारू हो, और इस प्रकार दोनों नाम प्रमुख हों । अथवा यह भी हो सकता है कि गोत्र का निर्देशक होने से “वात्स्यायन' नाम औपाधिक हो गौर 'पक्षिलं नाम मुख्य हो, या 'वात्स्यायन' नाम ही मुख्य हो भौर 'पक्षिल' सास 'पक्षिण:--प्रतिपक्षिण: लाति-आदते-निग्रहस्थाने गृह्लाति” इस व्युत्पत्ति से “चिपक्षियों के निग्रहकर्ता' अर्थ में, अथवा 'पक्षिण:-खगान्‌ लाति-आदत्ते-सस्नेहूं सकप॑ गुह्लाति' इस व्युत्पत्ति से 'पक्षी पर्यन्त प्राणियों के प्रति कृपालु-स्नेही* अर्थ में औपाधिक हो । पर जब मुझे अपनी समझ की बात कहनी होगी तो में यही कहना चाहूँगा कि इन दोनों नामों में 'वात्स्यायन नाम ही मुख्य है, क्योंकि इस नामका निर्देदा स्वयं भाष्यकारने किया है । अत: उस निर्देशको गोत्र का निर्देश नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि उसे गोत्र का निर्देश माना जायगा तो उस गोत्र के खनेकों व्यक्ति होने के कारण उस निर्देश से भाष्यकार का व्यक्तिगत परिचय नहीं होगा । फलतः उस निर्देश की कोई उपयोगिता न होगी । ' वाचस्पति मिश्र ने जो “पक्षिल” साम का निर्देश किया हैं उसे ओोपाधिक नाम का निर्देश माना जा सकता है; क्यों कि विनय भर श्रद्धा के चोतनार्थ उनके द्वारा मुख्य नाम का निर्देश न होकर औपाधिक नाम का निर्देश होना ही उचित हू। भाष्य में अनेक प्रतिपक्षी मतों का खण्डन है, अतः 'प्रतिपक्षी के निग्रहकर्ता' अर्थ में अथवा पक्षी के समान जो अल्पज्ञ हैं उनके हितार्थ “न्यायसुत्र” पर भाष्यविर्माण करने की कृपा के कारण “सर्वभूतकारणिक' समर्थ में 'पक्षि ल* इस ओपाधिक नाम का निर्देश सर्वेथा उचित हो सकता है । वात्स्यायन का निवासस्थान-- वात्स्यायन के निवासस्थान के सम्बन्ध में विचार करने पर यह बात अधिक सगत प्रतीत होती है कि न्यायसुन्रकार गौतम के समान स्यायभाष्यकार वात्स्यायन को भी मिधिला का हो निवासी माना जाय, क्योंकि जब “न्यायसुत” का निर्माण मिथिला में हुआ, तब यह स्वाभाविक हैं कि उसके भाष्य का निर्माण भी मिथिला में ही हो, क्यों कि मिथिला में वे “यायसुत्र” के अध्ययन भध्यापन, व्याख्यान और अनुव्याख्यान की सुविधा और सम्भावना उतने सुदूर पूर्वकाल में जितनी मिथिला में हो सकती थी, उतनी मिथिला से दुरवर्ती किसी अन्य प्रदेश में नहीं हो सकती थी । यदि “न्यायसूत्र' के निर्माणकाल गौर न्यायभाष्य के निर्माणकाल के परस्पर विप्रकर्पको देखते हुये यहू सम्भावना भी की जाय कि इतनीं लम्बी अवधि में




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