उड़ते पत्ते | Udate Patte

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Udate Patte by देवीदयाल चतुर्वेदी मस्त - Devidayal Chaturvedi Mast

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. उड़ते पत्ते हा सुमित्रा के बढ़ते पग अचानक रुक गए । उसे लगा कि यह टेलीफोन की 'घण्टी आज शायद उसे दम न लेने देगी--सोना तो बहुत दूर की बात हु। फिर नागर बहिन की कार फाटक पर खड़ी ह। उन्हें वह अभी-अभी वचन भी दे चुकी हूं। इस दक्षा में उसे कार पर जाना ही होगा । .. सुमित्रा कुछ क्षण इसी उलभन में खड़ी रही कि वह कार की ओर बढ़े या लौटकर टेलीफोन सुनने जाए। परिचारिका अपनी स्वामिनी की उछभन शायद समझ गई ; बोली-- श्यह टेलीफोन की घण्टी आज आपको बड़ा परेशान कर रही है। आपके चले जाने पर तो में कह देती कि... . . . । कि में बाहर गई हूँ ! ' बीच में ही सुमित्रा ने परिचारिका की बात पूरी कर दी--यही न ? 'जी ! आप कहें तो यही कह दूँ में ? आप जाइए, रात भीग रही हूं ।' पारिचारिका ने अनुरोध के स्वर में कहा । 'तहीं !' सुमित्रा ने कहा--जब तक में यहाँ हूँ, भूठ क्यों कहा जाए। फिर पता नहीं, किसका फोन हो और कंसा जरूरी काम हो । में स्वयं उत्तर दिए देती हूँ। आज भारतीय जनतन्त्र के जन्मोत्सव की इस मंगल वेला में जब घर-घर दीपोत्सव मनाया जा रहा हो, तब हम सभी को यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि राष्ट्रपिता गान्धी के ब्रत--सत्य और अहिसा--का हम आजीवन पालन करेंगे । फिर किसीको भूठ कहकर धोखा क्यों दिया जाए ?' और सुमित्रा टेलीफोन की तरफ बढ़ गई। . परन्तु टेलीफोन को घण्टी थी कि दम नहीं ले रही थी--अनतरत टनटना रही थी । बड़ी खीक हुई सुमित्रा को । एक क्षण को उसे छगा कि इस टेली- फोन को वह अपने निवास-स्थान से हटाकर छात्रावास में कहीं रख दे । छेकिन _ छात्रावास में, सम्भव है, इस टेलीफोन का दुरुपयोग होनें ऊगे और कुछ मनचली छात्राओं का रोमांस चलने कगे । नहीं-नहीं; ऐसा वह नहों करेगो ।”**'




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