उड़ते पत्ते | Udate Patte
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand). उड़ते पत्ते हा
सुमित्रा के बढ़ते पग अचानक रुक गए । उसे लगा कि यह टेलीफोन की
'घण्टी आज शायद उसे दम न लेने देगी--सोना तो बहुत दूर की बात हु।
फिर नागर बहिन की कार फाटक पर खड़ी ह। उन्हें वह अभी-अभी वचन
भी दे चुकी हूं। इस दक्षा में उसे कार पर जाना ही होगा ।
.. सुमित्रा कुछ क्षण इसी उलभन में खड़ी रही कि वह कार की ओर बढ़े या
लौटकर टेलीफोन सुनने जाए।
परिचारिका अपनी स्वामिनी की उछभन शायद समझ गई ; बोली--
श्यह टेलीफोन की घण्टी आज आपको बड़ा परेशान कर रही है। आपके
चले जाने पर तो में कह देती कि... . . . ।
कि में बाहर गई हूँ ! ' बीच में ही सुमित्रा ने परिचारिका की बात पूरी
कर दी--यही न ?
'जी ! आप कहें तो यही कह दूँ में ? आप जाइए, रात भीग रही हूं ।'
पारिचारिका ने अनुरोध के स्वर में कहा ।
'तहीं !' सुमित्रा ने कहा--जब तक में यहाँ हूँ, भूठ क्यों कहा जाए। फिर
पता नहीं, किसका फोन हो और कंसा जरूरी काम हो । में स्वयं उत्तर
दिए देती हूँ। आज भारतीय जनतन्त्र के जन्मोत्सव की इस मंगल वेला में
जब घर-घर दीपोत्सव मनाया जा रहा हो, तब हम सभी को यह प्रतिज्ञा करनी
चाहिए कि राष्ट्रपिता गान्धी के ब्रत--सत्य और अहिसा--का हम आजीवन
पालन करेंगे । फिर किसीको भूठ कहकर धोखा क्यों दिया जाए ?' और
सुमित्रा टेलीफोन की तरफ बढ़ गई।
. परन्तु टेलीफोन को घण्टी थी कि दम नहीं ले रही थी--अनतरत टनटना
रही थी । बड़ी खीक हुई सुमित्रा को । एक क्षण को उसे छगा कि इस टेली-
फोन को वह अपने निवास-स्थान से हटाकर छात्रावास में कहीं रख दे । छेकिन
_ छात्रावास में, सम्भव है, इस टेलीफोन का दुरुपयोग होनें ऊगे और कुछ मनचली
छात्राओं का रोमांस चलने कगे । नहीं-नहीं; ऐसा वह नहों करेगो ।”**'
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