तीर्थ यात्रा | Tirth Yatra

Tirth Yatra by सुदर्शन

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आशीवांद २१ पाषाण-दृदय को पिघला दिया हे । परन्तु उसने इतने ही पर संतोष न किया माठ-स्नेह ने भय को चरम-सीसा पर पहुँचा दिया था । ढाज- वन्ती ने देवी की आरय्ती उतारी फूढ चढ़ाये मन्दिर की परिक्रमा की और प्रेस के बोझ से कॉँपते हुए स्वर से मानता मानी कि देवी माता मेरा हेम बच जाय तो में तीर्थ-यात्रा करूँगी । यह मानता मानने के बाद छाजवन्ती को ऐसा जान पड़ा जैसे उसके दिल पर से किसी ने कोई बोझ हटा छिया है जैसे उसका संकट टढ गया है जैसे उसने देवताओं को खुश कर ढिया है। उसे निश्वय हो गया कि अब देम को कोई भय नहीं है । छोटी तो उसके पाँव भूमि पर न पड़ते थे । उसके हृदय-समुद्र में आनंद की तरंगे उठ रही थीं । उड़ती हुई घर पहुँची तो उसके पति ने कहा- ो बधाई हो तुम्हारा परिश्रम सफछ होने को है बुखार धीरे-धीरे उतर रहा है । लाजवन्ती के मुख पर प्रसन्नता थी और नेत्रों में आशा की झठक । झूमती हुईं बोढी-- अब हेस को कोई डर नहीं है। में तीथे-यात्रा की मानता मान आई हूँ । रामछाल ने तीथे-यात्रा के खच का अनुसान किया तो हृदय बैठ गया परन्तु पुत्र-स्नेह ने इस चिंता को देर तक न ठहरने दिया । उसने बादलों से निकठते हुए चन्द्रमा के समान मसुस्कराकर उत्तर दिया-- अच्छा किया रुपये का क्या है हाथ की -मेठ है आता है चला जाता है । परमेशर ने एक छा दिया है वह जीता रहे । यही हमारी दौछत हे । लाजवन्ती ने स्वामी को सुला दिया और आप रात-भर जागती रही । उसके हृदय पर ब्रह्मानंद की मस्ती छा रही थी । प्रभात हुआ तो हेम का बुखार उतर गया था। छाजवन्ती के सुख-मंडठ से प्रसन्नता टपक रही थी जैसे संध्या के समय गौओं के स्तनों से दूध की बूँदें टपकने छगती हैं । वेद्यजी ने आकर देखा तो उनका मुख-मंडढ भी चमक उठा 1




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