आचार्य चाणक्य | Aachaary Chaand-aky

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Aachaary Chaand-aky by जनार्दन राय - Janardan Ray

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शाचाय चाणक्य ] २ विष्णुरुप्र चाणुक्य>- ( उसी तरह क्षितिज की श्रोर देखता हुआ, ्विचल)--स्वयं को । बररुचि--(हँस कर)--समभ गया | कास्यायन, तुम सदेब गद्दन चिन्ता में लीन रददते हो । जब कभी मैं तुमको देखता हूँ ; किसी ऐडिक चिन्ता में लीन पाता हूँ। समक में नहीं श्राता, ऐसी कौनसी गम्भीर चिन्ता झा पड़ी है, तुम्दारे जीवन में, जो तुम गम्भीर विषाद में डूबे रहते हो ? विष्णुगुप्त चाएक्य--(उसी तरह) बरसरचि ! बररुचि-अ उत्साहित सा) हा, श्रोर क्या ? शभी-झभी गुरु-दक्षिणा के ऋणु-परिशोध के उपलब्य में बड़ी श्र णियों को 'झथे-शास्त्र की शिक्षा देने लगे हो । श्रथ-शास्त्र और काम-शास्त्र के तुम्द्दारे अगाध ज्ञान से प्रसन्न धोकर कुलपतिजी ने तुमको ब्ाचाय-पद्वी प्रदान की है । निस्संतेद, मित्र ! तुम्हारा पथ प्रशस्त है ! विष्णुगुप्र चाणुक्य--(स्वगत-सा)--> निरसंरेदद अपना पथ प्रशस्त है । ( सदसा घूम कर भार श्र दढ़ता के साथ ) नहीं, यद्द कदापि नहीं दो सकता । बरसुचि--( साश्चयं, दठात्‌ )>>क्या नद्दीं हो सकता ? विषणुगुप्र चाणुक्य-- तुम देख नहीं रहे हो, वररुचि ! कया होरदादे? बररुचि>-क्या दो रहा है ? कुछ भो तो नहीं ? भपना यद्द विख्यात विशाल विद्यापीठ यथापूर्व हे । श्रौर अब तो इस




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