आचार्य चाणक्य | Aachaary Chaand-aky
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
200
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शाचाय चाणक्य ] २
विष्णुरुप्र चाणुक्य>- ( उसी तरह क्षितिज की श्रोर देखता
हुआ, ्विचल)--स्वयं को ।
बररुचि--(हँस कर)--समभ गया | कास्यायन, तुम सदेब
गद्दन चिन्ता में लीन रददते हो । जब कभी मैं तुमको देखता हूँ ;
किसी ऐडिक चिन्ता में लीन पाता हूँ। समक में नहीं श्राता,
ऐसी कौनसी गम्भीर चिन्ता झा पड़ी है, तुम्दारे जीवन में,
जो तुम गम्भीर विषाद में डूबे रहते हो ?
विष्णुगुप्त चाएक्य--(उसी तरह) बरसरचि !
बररुचि-अ उत्साहित सा) हा, श्रोर क्या ? शभी-झभी
गुरु-दक्षिणा के ऋणु-परिशोध के उपलब्य में बड़ी श्र णियों को
'झथे-शास्त्र की शिक्षा देने लगे हो । श्रथ-शास्त्र और काम-शास्त्र
के तुम्द्दारे अगाध ज्ञान से प्रसन्न धोकर कुलपतिजी ने तुमको
ब्ाचाय-पद्वी प्रदान की है । निस्संतेद, मित्र ! तुम्हारा पथ
प्रशस्त है !
विष्णुगुप्र चाणुक्य--(स्वगत-सा)--> निरसंरेदद अपना पथ
प्रशस्त है । ( सदसा घूम कर भार श्र दढ़ता के साथ ) नहीं,
यद्द कदापि नहीं दो सकता ।
बरसुचि--( साश्चयं, दठात् )>>क्या नद्दीं हो सकता ?
विषणुगुप्र चाणुक्य-- तुम देख नहीं रहे हो, वररुचि ! कया
होरदादे?
बररुचि>-क्या दो रहा है ? कुछ भो तो नहीं ? भपना
यद्द विख्यात विशाल विद्यापीठ यथापूर्व हे । श्रौर अब तो इस
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