अठारह सूरज के पौधे | Atharah Suraj Ke Paudhe

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Atharah Suraj Ke Paudhe by रमेश बक्षी - Ramesh Bakshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरे मनमे यह लतीफा इस तरह सँजोया हुआ है कि जब भी सामने भआ जाता है मुझे गदगुदी होने लगती है। काकाका वेड़ा मुलगा सुना रहा है “एक गॉवबालेको मनसाड जाना था । अब उसने आगगाडी कभी देखी नही थी, तो किसीसे पूछा कि भाऊ आगगाडी कैसी होती हैं । भाऊने समझा दिया - आगे एंजिन रहता है, उसमे-से धूुँआ निकलता- है, एजिनका रंग काला रहता है और डब्बोका लाल । गाड़ी पटरीपर चलती है और भावाज़ करती जाती है । गाँववाला आगगाड़ी खोजने चला । उसे एक आदमी फूट-पटरीपर चलता हुआ दिखा । वह मुंहसे सिगरेट पीकर धूँआ छोड रहा था, काला कोट पहने था, लाल था उसका पेण्ट, भौर सिगरेट पीते-पीते खाँसता भी जा रहा था । गाँववाला समझा--हो-न-हों यही आगगाडी है ! वह उसके पीछे हो लिया और एकदम उसके ऊपर लद गया*** “इस लतीफेको सुनकर हम लोग खूब ताली बजा-बजाकर हँसते है ** फिर में खुद रेल बनता हूँ । अण्णाका काला कोट और उस मुलगेका लाल पैण्ट मैने पहना है । लम्बु काकाके पाससे एक बीड़ी चुरायी गयी है और उसका धंआ छोड़ते में रेल बन गया हूँ । उसी मुख्गेने पूछा है, - “कसा वाटतो रे ?” “मी त खरोचखर आरग्गाडी झाला । सच, मुझे ऐसा लग रहा है कि में रेल हो गया हूं और जब इस अनवरत छक्‌-छक्‌ , छक्‌-छकके बीच लेटा हूँ तब भी वैसा ही महसुस कर रहा हूं । महसुस कर रहा हूँ और हँस रहा हूँ खुदपर । सरदार साहब पगड़ी भी बाँध चुके है और मेरी हँसी भी रुक गयी है । लोग सन्निपातमे हँसते है--अवका भी हँस रही है, अवकाके सिरहाने बेठा हूँ मै “चल । ताबड़तौब चल रे, नाहीत टन चात्लो जाणार । हज्पि १० अठारह सूरजके पोधे




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