पूर्वी पाकिस्तान के आँचल से | Poorvi Pakistaan Ke Aanchal Se

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Poorvi Pakistaan Ke Aanchal Se by सुर्यप्रसन्न बाजपेयी - Suryaprasann Bajapeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुजला सुफला दस्यद्यामला बंगभूमि श्र बरसता श्रौर तभी गाँव वाले “इलिद” मछली पकड़ने के लिए छोटी-छोटी डोंगियों में निकल पड़ते थे । हवा, पानी, माँघी, तूफान इसकी किसी को परवाह नहीं थी । भादों के महीने में भड़ी लगी रहती थी--सात-सात दिन | फिर पानी, फिर धूप श्रौर फिर होता था कुंवार लगते ही दुर्गा-पुजा का महोत्सव मनाने का विराट झ्रायोजन । जो लोग मूति बनाते थे उनको “कुम्हार” कहते थे । जिन घरों में पुजा होती थी वहाँ कच्ची मिट्टी लाकर पहले मूर्ति को बनाकर धूप में सुखाते थे । फिर पन्द्रह दिन बाद उसको कपड़े से घिस कर, साँचे में ढले हुए मुखड़ों या मुखाकृतियों को बेठाते थे श्रोर पन्‍्द्रह दिन बाद उन मुण्मयी प्रतिमाश्रों में इस सुन्दरता से रंग लगाया जाता था कि सूर्तियाँ स्वाभाविक मानवीय रूप की मालूम पड़ने लगती थीं । इतनी भ्रच्छी सूरतियाँ ये लोग' बनाते थे कि ये प्रतिमाएँ प्राणावन्त झाकृतियों जैसी मालूम होती थीं । शाम को देवी की मूर्ति के सामने भारती उतारी जाती थी । धूपदानी लेकर देवी के सामने नाचने की प्रथा को मनमोहक ओर भक्ति-भावनापुरणं समभ्ा जाता था ।1...ऐसा भी कई घरों में देखा जाता था कि अमरीका के बोस्टन श्रौर शिकागो प्रवासी बंगाल के रहने वाले दुर्गा-पुजा झ्रौर काली-पुजा के समय सुदूर प्रवास से स्वदेश, भ्रपने घर झाकर, उन उत्सवों में योगदान करना झपना परम कतेंव्य समभकते थे । झाश्विन भ्ोर कातिक, दो महीनों में, हर हिन्दू गृहुस्थ के घर में पूजा श्रौर उत्सव मनाये जाते थे । सौ काशी से भी झधिक पवित्र : फूलों से लदा प्रदेश पूर्वी बंगाल में बारहों महीने करीब-करीब एक हो तरह की हरियाली बनी रहती थी । पेड़-पौधों को पानी से सींचने की जरूरत नहीं पड़ती थी । फूलों में गन्घराज, जूही, बेला, दो प्रकार की चम्पा (स्वर्ण चम्पा शभ्रौर काँठाली चम्पा), देफाली (हरम्यंगार', कामिनी, बकुल, झौर दो तरह के पद्म (जल में होने वाले प्रोर स्थल में वृक्षों में होने वाले)--लाल शरीर सफेद । गुड़हल फूल को जवाफूल कहते थे । ये फूल कई तरह के रंगों में पाये जाते थे । पुर्वें बंग' देश की पतली भ्रथवा ग्राम-श्री का वर्णन विख्यात कवि कुमुदरंजन मल्लिक ने इस कथिता में किया है-- “मांकी, तरी हेथा बंधवो नाकों श्राजकेर सांझे:' (माँकी भाज इस सांध्य-बेला में नाव को किनारे नहीं बाँधना, चलने दो |) 'भिड़ायो ना, चलुक तरी एइ नदीर माभे' (नाव न बाँधना, न रोकना, इसे चलने दो नदी में ।)




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