द्रव्यनुयोगातार्काना | Dravyanuyogatarkana
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
266
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्री परसात्मने नमः ।
प्रस्तावना
विदित हो कि अनादिकाठीन सर्वोत्तम जैन ध्ंसें सम्यर्द्न, सम्यग्ञञान और सम्यक_
'चारिन्र रूप रत्नन्रयके समुदायको मोध्षकी श्राप्तिके प्रति कारणता है । इसमें भी सम्यग्दशन
प्रधान है । क्योंकि, उसके बिना ज्ञानको और सम्यग्शानके बिना चारित्रको सम्यकू पदकी
प्राप्ति नहीं दोती है। वदद सम्यग्द्झंल जीव; पुदुगरू, धर्म; झधमं, आकाश तथा काछ इन पट...
द्रत्योंके यथाथे स्वरूपको ज्ञानकर उसमें श्रद्धान (विश्वास) करनेसे दोता है । अतः सिद्ध हुआ
कि सोध्षामिलाषी जनों को सर्च॑तः प्रथम पद. द्रव्योंका ज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है। वह
ज्ञान अन्तिस द्रव्यालुयोगसे होता है । इसी कारण पूज्य पुरुषोंने द्रव्यालुयोगके ज्ञानकी श्रहमंसा
मुक्तकंठ दोकर की हे और इसके अभ्यास करनेवाकोंको उत्तम कद्दा है ।,
प्राचीन आचार्यों और बुद्धिमान यदस्थरत्नोंने अपरिसित आपत्तियों और परिश्रमॉंको
सहन करके परोपकारबुद्धिसि इस विषयके सददस््रॉकी रचना की थी । परन्तु विकराठ कछिकाठके
प्रभावसे जीवोंके आयु, बल, बुद्धि तथा सद्धमंक्री श्रद्धा आदिमें अति समय दोती हुईं मंदता;
प्रमाद और विषयाभिलाघषिताकी घद्धि एवं दुष्टोंकी दुष्टता आदिसे अनेक श्रन्थ तो निराद्र-
पूर्वक नष्ट होगये और बहुतसे तल्ठाकोंदार छुफठ और मू्खोके 'अधिकारमें रददनेसे जीण ढो
रहे हैं; जिनका कि सूचीके बिना पता भी नहीं छगता । यद्द अत्यन्त खेदका विषय हे ।
तथापि दिगस्वर संप्रदायमें समयसार, प्रबचनसार; पंचास्तिकाय, परमात्मश्रकाश;
राजवार्तिक, श्छोकवात्तिक, प्रसेयकमलूमातंण्ड, न्यायकुमुद चन्द्रोदय, अष्टसदस्त्री, आप्तपरीक्षा;
पंचाध्यायी सटीक, द्रनव्यसंप्रद, नयचक्र; सप्तभगतरंगिणी आदि और इवेतास्वर' संप्रदायमें
संमितितकं, पोडशक, स्याद्वाद्रत्नाकरावतारिका,' स्याद्ाद्मजरी, तत्त्वाधाधघिगमभाष्य आदि'
छनेक म्न्थ जो प्रचारमें आरदे हैं, उनसे संवोष है ।
इवेताम्बर संप्रदायके उक्त अन्थॉसे यथाथे नामका घारक यदद “प्रव्यानुयोगतकंणा”
नामक झार भी एक है। इसके कत्तां 'तपोग्छगगनसण्डछमात्तंण्ड श्रीविनीतसागरजी के मुख्य
शिष्य द्रव्यविज्ञाननागर सकल्गुणसागर श्रोभोजसागरजी हैं । उक्त मद्दात्माने अपने अवतारसे
किस वसुधामंडछको मंडित किया यहद॒शीघ्रतासें निश्चित न दो सका । समयके विषय
वाचकसुख्य श“श्रीयशोविजयो पाध्यायजीविरचित्त द्रव्यगुणपर्याय भाषाविवरणके अनुसार इस
प्रकृत शोखंका संकठन 'करनेसे अशुमान किया ज्ञाता दे कि विक्रम सं० १५०० के पीछे किसी
समय इन्होंने यद्द अन्थरचा है ।
(९) इवेताम्बर सप्रदायके प्रचलित प्रस्योंके विशेष नाम उपस्थित नही थे, इसलिये थोडेसे ही नाम
दिखलाये गये है ।
(२) तपोगच्छुकी एक दो पत्रोकी पट्टावछी देखी, उसमे भी इनका तथा इनके गुरुअनोका वर्णन
नहीं मिला ।
(३) इनके नामके रमरणाथं काशीमे एक विशाल दवेताम्न्रपाठशाला है ।
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