मेहंदी के फूल | Mehandi Ke Phool

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Mehandi Ke Phool by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खेंल-खिलौने पाँच बर्षे वाद मैं अपने 'देश' जा रहा हूं । मेरा देश बीकानेर है भर मैं परदेश कलकत्ता में रह रहा हूँ । गाड़ी भाग रही थी । कलकत्ता छूटते ही मुझे सबसे पहले छिननू का नाम याद भाता है । छिन्नू के नाम के साथ मेरे मस्तिष्क में कई स्मृतियाँ एक-साथ जागृत हो जाती हैं। ये स्मृतियाँ आकाश के तारो की तरह कई आकारों में होती हैं--फूलों की तरह रंग-बिरंगी होती हैं; मुस्कान-सी मघूर भर भाँसू-सी खारी होती हैं; जीवन के सफर की तरह बहुत लम्बी और मोहल्ले की गली की तरह बहुत ही तंग होती हैं । ये स्मृतियाँ हमारे जीवन की बहुत बड़ी सम्बल होती हैं। दोष के रूप में ये ही स्मृतियाँ रह जाती हैं । ऐसी ही एक लम्बी स्मूति--छिन्नू की स्मृति, बचपन के दिनों की । सुबह का समय था । छोटे-छोटे मेघ-खण्डो की चीर-चीरकर पर्व की ओर लालिमा छितरा रह्दी थी। उस छितराती हुई लालिमा में उड़ता हुआ पत्नेरु बहुत अच्छा लग रहा था । समीप के महादेव जी के मन्दिर से घण्टा-ध्वनि आ रही थी 1 मेरी गली मे टूटता हुआ सन्नाटा था। कभी- कभी घड़ों से पानी लाने वाली पनिह्ारिनों की पायल की रमक-कमक सुनाई पड जाती थी । छिन्नू पानी ला रही थी । उसका बाप जीतू किसी बनिये के यहाँ रसोइया था भर वैष्णव धर्म को मानता था । धर्म के मामले में उसकी कट्टरता बड़ी मदाहूर थी । छिन्नू के पैदा होने के तीन वर्ष बाद ही जीतू “की पत्नी का देहास्त हो गया था । एक बडी बहन थी जिसका विवाह ही गया था । एक छोटा भाई था जिसका पालन-पोपण ननिहाल में हो रहा प्था।




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