भरतेश - वैभव भाग - 3, 4 | Bharatesh - Vaibhav Bhag - 3, 4

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Bharatesh - Vaibhav Bhag - 3, 4  by वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhaman Parshwanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्वयंवर संधि. 1 ३ भरतजी सचमुचमे पुण्यशाली महात्मा हैं । क्योंकि जिनके कात्ण से बड़े बढ़ योगियोंके दइयका भी शश्य दूर हो एवं उनको ध्यानकों तिद्धि होकर कैवल्यकी प्राप्ति हो, उनके पुण्यातिशयका वणन क्या! करें ! इसका एकमात्र कारण यइ है कि उन्हें माठुम है कि शत साघनकी विधि क्या दै ? परपदार्थोंक कारणते चेचछ द्ोनेवाल जातमा कों उन विकल्पोंते हटाने तरीका क्या हैं ? उसी अनुभवका प्रयोग ब.हुबढिके शल्य दूर करनेमें उन्होंने किया । इसके अछात्रा वे प्रतिनित्य व. परमात्पाकों इस रूपनें स्मरण करते हैं कि-- हे परमात्मन्‌ ! आप पहिढे अल्पप्रकाशरूप धमेध्यानसें प्रकट होते हैं । चित्तक़ा नेमेल्य बटनेसे अत्याधिक उज्वछ प्रकाश रूप शुक्ध्यानसे प्रकट होते हैं । इसलिए हे चिदंबरपुरुप ! मेरे हृदय बने रहो इति-श्रण्यारोहण संघि | न अथ स्वयंवर संघि. भगवान्‌ बाहुधलिस्त्रीमी, अनंतवीय एवं कच्छ महाकच्छ बोगि- यॉको केवलज्ञान हुआ इससे भरतजी बहुत प्रसन्न हुए हैं । उसे स्मरण करते हुए भानदसे अपने समयकों व्यतीत कर रहे हैं । महाबल राजकुमार व रत्नबल राजकुमारका योग्य वयमें बहुत वैभव+ साथ विवाह कर पितृवियोगके दुःखको मुलाया । अपने दामाद राजकुमारोंको एवं अपनी पुत्रियोंको कभी २ बुढवां कर उनको अनेक विपुल संपत्ति देकर भजते थे । इस पमकार बहुत आनंद भरतजीका समय जारदा है ।




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